हृदयान्तर्वेष्टन शोथ का होम्योपैथिक इलाज [ Homeopathic Medicine For Endocarditis, Inflammation of The Heart Valve ]

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हृदय के भीतरी आवरण को “एण्डोकार्डियम” और उसके प्रदाह को एण्डोकाइटिस” अर्थात “हृदयांतर्वेष्टन-शोथ” कहते हैं। पेरिकार्बाइटिस (हृदयावरक बाह्य झिल्ली-प्रदाह) की भांति यह रोग भी आप से आप उत्पन्न नहीं होता, अधिकांश स्थानों में यह वातरोग का ही एक प्रधान उपसर्ग माना जाता है। एण्डोकाइटिस में हृदय के भीतर वाले आवरण में और हृत्कपाट (वाल्व) के मुंह के आवरण में एक प्रकार के वेजिटेशन (मांसांकुर) पैदा होते हैं। इन्हें इकट्टे देखा जाए, तो ठीक फूलगोभी की तरह मालूम होते हैं। ये मांसांकुर कभी-कभी सूख भी जाते हैं। सूख जाने पर वाल्व के मुख पर एक मस्से की तरह बनकर अटके रहते हैं। यह वेजिटेशन कभी-कभी फट जाता है और रक्त में मिल जाता है।

वात या किसी दूसरे रोग के साथ यदि एण्डोकाइटिस रहता है, तो कोई विशेष गुरुतर लक्षण प्रकट नहीं होते। वातरोग के साथ हृदय की गति अनियमित और तेज रहती है; ज्वर चढ़ जाता है, श्वास में कष्ट, कभी-कभी हृदय में दर्द आदि रहने पर एण्डोकाइटिस का संदेह करना पड़ जाता है। वात या किसी दूसरे रोग के साथ जो एण्डोकाइटिस होता है, वह यदि पुराने आकार में बना रह जाए, तो कष्टदायक होता है, पर प्राण नहीं लेता। जब यह स्वयं स्वाधीन रोग के रूप में होता है, उस समय यह कितनी ही बार प्राणघातक हो जाता है। यदि रोग कठिन रूप धारण करे तो हृदय भारी रहता है, उस पर दबाव मालूम होता है, रोगी को हमेशा चित्त होकर पड़े रहना पड़ता है, रोगी बहुत बेचैन और कातर हो जाता है, ज्वर रहता है, नाड़ी कमजोर, महीन और रुक-रुककर चलती है, बहुत जोर का श्वांस-कष्ट होता है, पसीना आता है और अचेतावस्था आ जाती है।

रोगी को प्रबल अवस्था में केवल दूध देना चाहिए। मांस का शोरबा एवं जूस आदि देना मना है। गरम पानी में नींबू का रस मिलकार हमेशा पिलाते रहें। रोगी को दो-तीन महीनों तक बिस्तर से उठने न दें। मैलिग्नैण्ट-एण्डोकाडइटिस की चिकित्सा पाइमिया” की चिकित्या की तरह करनी चाहिए।

एकोनाइट 30 — छाती में सुई की चुभन का-सा दर्द, घबराहट तथा ज्वर आदि लक्षण हों, तो इसे देना चाहिए।

स्पाइजेलिया 30 — हृदय का बहुत जोर से धक्-धक्” करना, यहां तक कि रोगी अपनी धड़कन को स्पष्ट सुन भी सकता है, यह धड़कन कपड़े के हिलने से भी दिखती है। बैठ जाने से धड़कन बढ़ जाती है, आगे झुकने से भी बढ़ती है, जबकि पीछे झुकने से घटती है। रागी झुककर छाती का बोझ बाजुओं पर रखकर बैठता है, जिससे उसे आराम मिलता है। हृदय में कंपन का अनुभव होता है। गहरा श्वास नहीं लिया जा सकता, श्वास रोकने से भी कष्ट होता है, रोगी दाईं करवट ही लेट सकता है या फिर सिर को बहुत ऊंचे तकिए पर रखकर लेटता है।

लैकेसिस 30 — हृदय के नए या पुराने रोगों में यह बड़ी उपयोगी औषधि है। इसके लक्षण हैं-गला घुटना, खांसी तथा किसी भी अंग पर संकोच के दबाव को न सह सकना। हृदय के ऊपरी भाग में धड़कन जैसा दर्द होता है, जिससे धड़कन और घबराहट शुरू हो जाती है। होंठ नीले पड़ जाते हैं, शरीर भी नीला पड़ जाता है, जैसे शरीर को ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा न मिल रही हो। ऐसा लगता है कि हृदय अपने स्थान से बहुत बढ़ गया है, अपनी जगह नहीं समा रहा। गले को छुआ नहीं जा सकता; गला, पाकाशय या उदर को स्पर्श नहीं किया जाता, सब जगह वस्त्र ढीले करने पड़ते हैं; निद्रा के पश्चात रोग बढ़ जाता है और फिर रोगी सोने से ही घबराने लगता है।

कैलमिया 6 — जब गठिया या वात-व्याधि को बाहर के लेपों से उपचार किया जाता है, तब रोग अंतर्मुखी हो जाता है और हृदय-रोग के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। हृदय-प्रदेश में असह्य कष्ट उत्पन्न होता है, श्वास-कष्ट होता है, ज्वर भी आ जाता है। रोगी की नब्ज बहुत धीमी पड़ जाती है। जब वातरोग से हृदय-रोग की उत्पत्ति हो, तब इसे देना चाहिए।

नेजा 6 — हृदय-रोग के लिए लैकेसिस की तरह यह भी बहुत उपयोगी औषधि है। दोनों ही सर्प का विष हैं। किसी संक्रामक रोग के बाद यदि हृदयांतर्वेष्टन-शोथ हो जाए, तो उपयोगी है। हृदय के ऊपर के स्थान में घबराहट होती है, ऐसा प्रतीत होता है, जैसे हृदय पर बोझ पड़ा है। इस औषधि का प्रयोग निम्न-शक्ति में ही किया जाता है, प्रत्येक 4 घंटे के अंतर से दें।

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