तालुमूल ग्रंथि प्रदाह का होम्योपैथिक इलाज [ Homeopathic Medicine For Tonsillitis ]

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जिह्म की जड़ के पास देखने पर “उपजिह्वा” दिखाई देती है। जब यह देखने में आए कि उपजिह्वा के दोनों ओर की जगह लाल-लाल और कुछ फूली हुई है, तो समझ लेना चाहिए कि टांसिल हो गए हैं। टांसिल की सूजन या प्रदाह को “तालुमूल-प्रदाह” या “टांसिलाइटिस” कहते हैं। जब टांसिल खूब फूल जाते हैं, तो कोई भी चीज निगलने में बड़ी कठिनाई और पीड़ा होती है। टांसिल के पक जाने पर ज्वर आदि हो जाता है। टांसिल में पीब पड़ जाती है, जिस कारण रोगी को बहुत कष्ट होता है।

एकोनाइट 6, 30 — रोग के आरंभ में इससे लाभ होता है। टांसिल सूज जाने के कारण गले में तेज दर्द, पीड़ा, ज्वर, घबराहट और बेचैनी हो जाने पर दें।

बेलाडोना 3x — टांसिल फूल जाएं, लाल पड़ जाएं, उनमें अत्यधिक पीड़ा हो, प्रदाह की अवस्था में डंक चुभने का सा दर्द हो, रोगी के द्वारा कुछ निगला न जाए, ज्वर से अधिक बेचैनी हो, दाहिनी ओर की तालुमूल ग्रंथि अधिक फूली हो, तब इसकी निम्न शक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिए।

मर्क्युरियस बाइवस 200 — बेलाडोना से लाभ न होने पर इसे देना चाहिए। प्रायः इसी से रोग अच्छा हो जाता है और कोई अन्य औषधि देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसमें पीड़ा अधिक नहीं रहतीं। यदि इसकी निम्न-शक्ति का बारम्बार प्रयोग किया जाए, तो टांसिल के पक जाने की संभावना बढ़ जाती है, उनमें पीब पड़ सकती है, इसलिए सदैव इसकी उच्च-शक्ति प्रयोग की जानी चाहिए।

बैराइटा कार्ब 6 — रोग की आरंभिक अवस्था में इससे लाभ होता है। जरा-सी भी ठंड लग जाने से टांसिल सूज जाएं, तो टांसिल सूजने की प्रवृत्ति को यह औषधि रोक देती है। ऐसे रोगियों के लिए यह औषधि अत्यंत उपयुक्त है, जिन्हें जरा-सी ठंड लगते ही टांसिल की शिकायत हो जाती है, उनकी जीर्णावस्था में भी यह लाभकारी है।

हिपर सल्फर 6 — पीब पड़ जाने पर अथवा टांसिल के पक जाने पर इसका प्रयोग होता है। इसकी निम्न-शक्ति के प्रयोग से यदि पीब नीचे रहती है, तो ऊपर उमड़ जाती है। इससे टांसिल अपने आप फट जाते हैं। यदि रोग पुराना रूप धारण कर लेता है, तो रोगी को कुछ दिनों तक शक्ति-परिवर्तन कर औषधि देनी चाहिए। ध्यान रखें, इस औषधि की निम्न-शक्ति से पीब पैदा होकर टांसिल फट जाते हैं, जबकि उच्च-शक्ति से ग्रंथि बैठ जाती है।

गुआएकम 3, 6 — यह तालुमूल-प्रदाह “टांसिल” की उत्तम औषधि है। टांसिल प्रदाहित होकर लाल-काला हो जाता है, तीव्र पीड़ा होती है, जो कान तक पहुंच जाती है। रोग के आरंभिक काल में यह बहुत लाभ करती है। यदि सर्दी लगकर रोग का आक्रमण हुआ हो, भयंकर सिरदर्द और ठिठुरन हो, ज्वर के साथ-साथ शरीर में दर्द हो, तो इससे लाभ होता है।

मर्क्युरियस आयोड और मर्क्युरियस बिन आयोड़ 6, 30 — टांसिल की सूजन, दर्द और कष्ट आदि में मर्म्युरियस आयोड की अपेक्षा मर्क्युरियस बिन आयोड के उपसर्ग अधिक प्रबल होते हैं। इन दोनों औषधियों में ही रोटी आदि निगलने में बहुत पीड़ा होती है, गले में ऐसा मालूम होता है, जैसे कोई चीज अड़ी है। मर्क्युरियस कोर और मर्क्युरियस सियानेटस-इन दोनों औषधियों का, जब रोग घातक हो जाए, तब प्रयोग होता है।

साइलीशिया 12x, 30 — जब रोग उग्र रूप धारण कर ले, तब यह उपयोगी है। गले में चुभता हुआ दर्द हो; टांसिल की पस निकल जाने पर यह औषधि अवश्य देनी चाहिए।

फाइटोलैक्का 3, 30 — नए और पुराने तालुमूल ग्रंथि-प्रदाह में यह औषधि अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करती है। रोग की प्रारंभिक अवस्था में 3 शक्ति प्रयोग करने पर 8-10 दिनों में ही सूजन घट जाती है। यदि ऐसा न हो और रोग पुराना आकार धारण कर ले, रोगी को कोई भी चीज सटकने में पीड़ा हो, श्वास लेने और छोड़ने में कष्ट हो, टांसिल गोल सुपारी की तरह उभरे दिखाई दें, तब इसकी 30 शक्ति देने से आशातीत लाभ होता है।

एपिस 3, 6 — ट्रांसिल थैली की तरह सूजे हुए, श्वास लेने में कष्ट तथा पानी तक पीने में बहुत कष्ट होता है और गले में कांटा गड़ने की तरह दर्द होता है।

लैकेसिस 6, 30 — पहले बाईं ओर के टांसिल में प्रदाह होता है, फिर दाई ओर रोग का आक्रमण होता है। टांसिल नीली आभा लिए लाल दिखाई देता है और इसके कारण गला बंद-सा महसूस होता है। गले के भीतर भयानक पीड़ा होती है, तब इस औषधि से लाभ होता है।

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