मुंह आने का होम्योपैथिक इलाज [ Homeopathic Treatment For Stomatitis ]

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इस रोग को अंग्रेजी में “स्टोमेटाइटिस” कहते हैं। हिन्दी में इसे “मुख गह्वर का प्रदाह” या “मुंह आना” कहते हैं। इस रोग के होने के कई कारण हैं, जैसे छोटे बच्चों के दांत निकलना, बहुत ठंडा या बहुत गरम खाना-पीना, सही ढंग से दांत-मुंह आदि साफ न करना, अक्ल दाढ़-दांत का निकलना, दांतों में कीड़ा लगना, नकली दांत या जबाड़े का मसूढ़े में ठीक-ठाक न बैठना, बहुत ज्यादा तंबाकू, चुरुट, जर्दा इत्यादि का सेवन करना, पाकस्थली या आंतों की किसी बीमारी को गौण फल, टांसिलाइटिस, फैरिंगजाइटिस और ज्वर आदि रोग का होना।

यदि इस रोग की उत्पत्ति का कोई कारण हो, तो पहले वे कारण ही दूर करने चाहिए। कीड़े लगे दांत, टूटे दांत रहने पर उन्हें उखड़वा देना अच्छा है; गुरुपाकजल्दी न पचने वाली चीजें खाना और नशीले पदार्थ खाना-पीना त्याग देना चाहिए। बच्चों के रोग में बड़ी सावधानी से मुंह का भीतरी भाग साफ करना या रखना चाहिए। रुई को ठंडे पानी में भिगोकर धीरे-धीरे मुंह का भीतरी भाग साफ कर देना चाहिए।

कांच्लिरिया (मदर-टिंक्चर) — 20-25 से 40 बूंद 1 आउंस पानी में मिलाकर इससे कुल्ला करने पर मुंह जल्दी साफ हो जाता है, कैलेण्डुला से भी इस तरह से लोशन तैयार कर कुल्ला कराने से भी लाभ होता है।

हाइड्रेस्टिस 3, 6 — बच्चों का मुंह आना, जिह्वा बहुत सूखी, ऐसा प्रतीत होना, जैसे जल गई हो। जिल्ला का रंग कालिमा लिए लाल रंग की दिखाई देती है। जिह्म के कांटे (पैपिली) सब ऊंचे रहते हैं। मुंह गोंद की तरह लसदार रहता है। बच्चे के मुख से जो लार निकलती है, वह रस्सी या सूत की तरह लंबी रहती है। मुंह आने की यह उपयोगी औषधि है।

आयोडम 30 — मसूढ़े के ऊपर धूमैले रंग के छोटे-छोटे दर्द भरे जख्म रहते हैं। मसूढ़ा लाल और सूजा रहता है। रक्त निकलता है। बहुत अधिक परिमाण में बदबूदार लार झरती है। नाक से जो कफ निकलता है, उसमें भी बहुत बदबू रहती है। गांठे फूलती हैं; आयोडम का रोगी दुबला-पतला और कमजोर रहता है।

मर्क्युरियस सोल 6, 30 — जिह्वा फूली, मोटी, थुलथुली; उसके ऊपर दांत का दाग पड़ता है। बहुत अधिक मात्रा में रक्त मिला लार का स्राव होता है। घाव जल्दी-जल्दी बढ़ जाता है, लेकिन गहरा नहीं होता है। कोई भी चीज निगलने के समय गले में कुछ अड़ा हुआ है, ऐसा मालूम होता है। दांत ढीले और दांत की जड़ में जख्म हो जाता है; ये सब लक्षण बहुत हल्के तरह के हैं। अस्वास्थकर मंसूढ़ा, मसूढ़े में छिद्र हो जाता है, रक्त निकलता है, बदबू निकलती है इसमें मर्क्युरियस सोल ही लाभदायक रहती है। किंतु जीर्ण रोग में, जिस समय रोग सड़ने वाले जख्म में परिणम होने की संभावना होती है, मुंह के टिश्यू के नष्ट होने की संभावना अधिक रहती है, ऐसे लक्षण होने पर मर्क्युरियस सियानेटस या मर्क्युरियस कोर से भी लाभ होता है।

सल्फर 30 — जिसका मुंह आ रहा हो और वह सोरा-धातुग्रस्त रोगी हो, तो इस औषिध का प्रयोग करने पर उपकार होता है।

एसिड सल्फ 30 — जिस बच्चे को सुखंडी रोग होता है, उसके मुख से, जख्म से बहुत लार का स्राव, खट्टा वमन, घुले हुए अंडे की तरह मल (पाखाना), बहुत दुर्बलता, मसूढ़े का रंग पीला, सफेद मिले रहने पर यह औषधि अधिक लाभ करती है।

एकोनाइट 6, 30 — मुंह आने के कारण ज्वर, बेचैनी, प्यास, मुंह के भीतर से सूखा और गरम, साधारण प्रकार के रोग में इससे लाभ होता है।

इथूजा सिनापियस 30, 200 — जिह्वा सूखी, गला और जिह्वा के भीतर मानो महीन कांटा चुभोया जा रहा है, कोई भी चीज निगलने या पानी पीने में भी बहुत कष्ट होता है। मुंह आने के कारण नमक और मिर्च-मसालों का खाया नहीं जाता; जिह्वा, होंठ और मसूढ़े के ऊपर सफेद रंग के छोटे-छोटे जखम, देखने पर बहुत कुछ दूध की मलाई की तरह, जिस जगह पर इस प्रकार के मुंह के जख्म नहीं हैं, लेकिन दही के थक्कों की तरह जमे हुए दूध का वमन रोगी करता है और मल के साथ भी इस तरह का फटा-फटा सफेद पदार्थ रहता है, उन जगहों पर इस औषधि से विशेष लाभ होता है।

हिपर सल्फर 6, 30 — होंठ, जिह्वा और गाल के भीतर सफेद रंग के पीब भरे जख्म, थोड़ा-सा भी छूने या कोई चीज पीने के कारण रोगी दर्द से बेचैन हो उठता है। मुंह आया होता है और मुंह के घाव के चारों ओर चर्बी की तरह मैल इकट्ठा होता है। सूई गड़ने की तरह दर्द होता है। मुंह का स्वाद खट्टा रहता है।

हेलिबोरस नाइग्रा 200 — मुंह आना और मुंह के भीतर पीले रंग को चौड़ा जख्म और जख्म के बीच का रंग लाल-लाल और फूला-फूला; किनारे सब सफेद रंग के और उन्नत रहते हैं। लगातार लार बहती है। मसूढ़े के नीचे की गांठे फूल जाती हैं; इन लक्षणों में यह औषधि उपयोगी है।

मर्क सोल 30 — मुंह तर तथा उसका सैलाइवा से भर जाना, अत्यधिक सैलाइवा; इसका विलक्षण लक्षण यह है कि मुंह की तरावट के साथ रोगी को बहुत प्यास लगती है। साधारणतः मुंह तर होने पर प्यास नहीं लगनी चाहिए, किंतु इसमें मुंह तो तर होता है, फिर भी प्यास ज्यादा लगती है; मुंह से गिरने वाली लार बदबूदार होती है। मर्क सोल इसमें लाभदायक है।

नाइट्रिक एसिड 3, 6 — यदि रोगी ने कभी पारे से निर्मित औषधियों का सेवन किया हो और उनके परिणामस्वरूप मुंह से लार बहना जारी छे गया है, तो इस औषधि से पारे की औषधियों का प्रभाव दूर हो जाएगा। रोगी की लार में बेहद बदबू आती है, तब इसे दें।

आयोडियम 3, 30 — यदि पारे से निर्मित औषधियों के सेवन से मुंह लार से भर जाता हो और नाइट्रिक एसिड देने से भी विकार दूर न हुआ हो, तब यह औषधि देनी चाहिए।

बेराइटा कार्ब 6, 30 — यदि मुंह आया हो और प्रातःकाल सोकर उठने पर मुंह से लार बहने लगे, मुंह छालों से भर जाए, तो इस औषधि से लाभ हो जाता है।

पाइलोकारपस 3, 6 — मुंह से निरंतर लार बहने लगे, तो यह औषधि उपयोगी है। इसका प्रधान-लक्षण है, शरीर में से अत्यधिक पसीना आना।

क्रियोसोट 6, 30 — गर्भ की अवस्था में निरंतर मुंह से लार निकले और उसका स्वाद मीठा हो, तो इससे बहुत लाभ होता है।

कैलि बाईक्रोम 30 — मुंह के भीतर के जिस स्थान का मांस नरम रहता है, उसी जगह पर जख्म होता है, मुंह आने के कारण जख्म (घाव) शीघ्रताशीघ्र गहरा होता जाता है, बहुत लार बहती है, मुंह के भीतर गोंद की तरह कफ इकट्ठा होता है, रोगी बहुत सुस्त हो जाता है। मोटे अथवा आलसी बालक-बालिकाओं के रोग में यह औषधि अधिक लाभदायक है। प्रायः मसूढ़े में जख्म होता है; जिल्ल पर पीली या पीले-सफेद मिले रंग की मैल रहती है। जिह्म के भीतर डंक मारने की तरह दर्द और जलन होती है, यह इसका विशेष लक्षण हैं।

कैलि क्लोरिकम 30, 200 — मुंह से बहुत अधिक लार निकलती है, इसका स्वाद खट्टा रहता है। गला भीतर से लाल रंग का हो जाता है और फूलता है। कान के जड़ की गांठ फूल जाती है। मुंह में घाव हो जाता है, तब इस औषधि से बड़ा उपकार होता है। डॉ० एलेन का मत है-मुंह के भीतर सड़ने वाला घाव होने पर इसकी बाहरी और भीतरी प्रयोग से बहुत से रोगियों ने आरोग्य लाभ किया है। मुंह में सड़ने वाला घाव होने पर यह सब औषधियों की अपेक्षा अधिक लाभदायक है। प्रायः हर तरह के मुंह के घाव में इसका व्यवहार होता है।

फास्फोरस 30 — मुंह आने और अधिक लार निकलने में लाभकारी है।

स्टैफिसेग्रिया 6, 200 — मुंह के भीतर पहले छालों की तरह घाव होकर वह क्रमशः कैंसर में परिणत हो जाता है। घाव नीले और लाल मिले रंग का दिखाई देता है। मसूढे में घाव होता है। वह सफेद रंग का दिखाई देता है। मसूढ़े और मुंह के भीतर घाव होता है, उसमें बहुत दर्द रहता है, घाव से जरा से में ही रक्त निकलने लगता है; मुंह के भीतर और जिह्वा में छाले की तरह घाव होता है, गरदन की ग्रंथि फुल जाती। है, दांत टुकड़ा-टुकड़ा होकर टूटकर निकलता है। रोगी बच्चे का चेहरा बदरंग हो जाता है, स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है, ऐसे में यह औषधि बड़ी उपकारी सिद्ध होती है।

एपिस 6 — मुंह के भीतर की श्लैष्मिक-झिल्ली फूल जाती है, लाल हो जाती है; अग्नि में जल जाने से जिस तरह के छाले और घाव होते हैं, ठीक उसी तरह के घावों से मुंह भर जाता है, लगातार मुंह से लसदार गोंद की तरह फेन मिली लार निकलती है, प्यास नहीं रहती।।

बेलाडोना 6 — अधिक मुंह आने पर तेज ज्वर, बेचैनी इत्यादि हो, तो उसे 6 शक्ति की मात्रा में दें।

कार्बोवेज 30 — दांत से अलग होकर मसूढ़ा ऊपर की ओर उठ पड़ता है और उसमें स्पंज की तरह छेद होता है, सहज में ही रक्त निकलता है, हिमांग आ जाता है; जिह्वा ठंडी हो जाती है, मुंह से बदबू निकलती है; पीला या भूरे रंग का कफ मिला लसदार दस्त होता है।

लैकेसिस 30 — जिह्वा लाल और सूखी रहती है, छाले पड़ते हैं या जिह्मा के किनारे लाल रंग के और मध्यभाग भूरे रंग की दिखाई देता है। कभी-कभी मध्य भाग में लाल रंग के सूत की तरह दाग पड़ता है। बहुत लार बहती है और मुंह से बदबू निकलती है। मल काले रंग का बदबू भरा रहता है, पेशाब में बहुत तेज गंध रहती है। रोगी कमजोर हो जाता है, मुंह का घावे सड़ने वाले घाव का रूप धारण करता है। रोगी की टाइफॉयड जैसी विकारग्रस्त अवस्था आ जाती है। मसूढ़े से रक्त गिरता हैं मसूढ़ा सूज जाता है और उसमें छिद्र हो जाता है तथा वह काले या नीले रंग का दिखाई पड़ता है; स्पर्श सहन न होने वाला दर्द, उसमें से बदबूदार लार निकलती है। इन सब लक्षणों में यह औषधि लाभप्रद है।

आर्सेनिक एल्बम 6, 30 — बहुत बेचैनी, कमजोरी, जलन आदि लक्षण रहने पर इसका सब प्रकार के मुंह आने, घाव होने पर व्यवहार किया जा सकता है। मसूढ़ा फूलता है, छूने पर उसमें दर्द होता है, रक्त निकलता है, सफेद घाव हो जाते हैं, मुंह के भीतर और जिह्वा में घाव हो जाता हैं, घाव में जलन होती है, मुंह भीतर से सूखा और गरम रहता है, जिह्वा सूखी और लाल, जिह्वा के भीतर कांटा चुभने की तरह दर्द और जलन होती है, जिह्वा के ऊपर जल जाने की तरह छाले आदि इसके विशेष लक्षण हैं। इसका अलावा जिल्ला फूलती है, मुंह से रक्त मिली लार बहती है और मुंह से इतनी बदबू निकलती है कि कोई पास में नहीं बैठ सकता। रोगी का चेहरा बदरंग हो जाता है, शरीर से ठंडा पसीना निकलता है, पेट गड़बड़ा जाता है, उद्वेग, बेचैनी, मृत्यु-भय इत्यादि लक्षण प्रकट हो जाते हैं; रोगी की अवस्था खराब होती जाती है। इस समय आर्सेनिक जीवन-रक्षक बन जाती है।

एरम ट्राइफाइलम 30 — मुंह के भीतर के सब स्थानों की श्लैष्मिक-झिल्ली का प्रदाह, इसी वजह से मुंह के भीतर बहुत दर्द और मुंह से रक्त निकलता है। होंठ और तालु आग की तरह जलते रहते हैं; मुंह के भीतर इतना अकड़न का दर्द रहता है कि इसी कारण रोगी कुछ भी खाने या पीने से डरता है।

बैप्टीशिया 30 — दांत और मसूढ़े कालापन लिए दिखाई देते हैं, मुंह से गंध निकलती है, लगातार थोड़ा-थोड़ा रक्त निकलता है, श्वास छोड़ने पर बदबू निकलती है, जिह्म मोटी और भारी हो जाती है। मुंह आने के कारण वह नमक-मिर्च का कुछ भी खा नहीं पाता है, पतले दस्त आते हैं और रोगी बहुत कमजोरी को महसूस करता है।

बोरैक्स 30, 200 — यह मुंहे आने की प्रधान औषध है। दूध पीने वाले बच्चों का मुंह आना, मुंह में घाव हो जाना, अकड़न का दर्द, मुंह से खून निकलना, मुंह का भीतर से बहुत गरम रहना, प्यास रहती है, बच्चा वमन करता है।

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