मूत्राशय की प्रदाह का होम्योपैथिक इलाज [ Homeopathic Medicine For Cystitis ]

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प्रोस्टेट ग्लैंड की सूजन आदि कारणों से मूत्राशय में शोथ हो जाता है, जिससे मूत्राशय-प्रदेश में तीव्र पीड़ा, अकड़न या भार मालूम होना, सब अंगों में सर्दी का लगना या कंपकंपी; मूत्राशय में मूत्र एकत्रित होने के साथ ही बहुत कष्ट से मूत्र निकलता है। मूत्र में श्लेष्मा या रक्त आने पर पीड़ा कम हो जाती है। इस रोग में दर्द ऊपर की ओर कमर तक फैल जाता है और मूत्रग्रंथि-प्रदाह में दर्द नीचे की ओर कमर से मूत्राशय तक फैल जाता है। मूत्राशय के अनेक रोग हैं, जैसे मूत्र-पथरी, मूत्रकृच्छ्रता, मूत्रनली का सिकुड़ना, मूत्रमार्ग की जलन, मूत्र-शूल, मूत्र-रोध, मूत्र-नाश और बहुमूत्र आदि।

नक्सवोमिका 6, 30 — मूत्र कठिनाई से आता है, मूत्र की हाजत होती है, किंतु इसी के साथ दर्द भी होता है; कुछ बूंद ही मूत्र उतरता है, जिसे उतरने में जलन होती है। कभी-कभी मूत्र की हाजत के साथ मल की हाजत भी हो जाती है। मूत्राशय के रोग में यह औषधि उपयोगी है।

कोपेवा 3, 6 — स्त्रियों में मूत्राशय तथा मूत्रनली के मुंह पर साधारण-सी जलन। मूत्र बूंद-बूंद और दर्द के साथ उतरता है। स्त्रियों के निमित्त बहुत ही उपयोगी औषधि है।

फेरम फॉसे 6 — मूत्र का निकल जाना, विशेषकर दिन के समय।

सेनेगा (मूल-अर्क) 10 — रात्रि के समय मूत्र का निकल जाने में उपयोगी है।

बेलाडोना 30 — दिन में या रात में सोते समय मूत्र के निकल जाने में यह लाभ करती है।

कॉस्टिकम 30 — खांसते या छींकते समय मूत्र निकल जाए, तब इसे दें।

कैथरिस 30 — बार-बार मूत्र-त्याग की इच्छा, किंतु जलन के साथ कुछ ही बूंद ही मूत्र उतरे। कभी-कभी मूत्र के साथ रक्त भी आता है। मूत्राशय में असहनीय पीड़ा होती है, जलन भी बनी रहती है। रोगी की पीड़ा हाजत के बाद भी बनी रहती है।

टैरेंटुला हिस्पैनिया 30 — मूत्राशय-प्रदाह के साथ ज्वर, पेट खराब, मूत्र का एक कतरा भी नहीं निकलता, अत्यंत पीड़ा होती है। यदि मूत्र उतरता है, तो काला, भूरा, सड़ांध भरा, जिसके नीचे पथरीला तलछट बैठ जाता है। रोगी बेचैनी से इधर-उधर टहलता फिरता रहता है।

पैरेइवा बैवा (मूल-अर्क) 6 — भयंकर दर्द के साथ मूत्र बूंद-बूंद आना, लगातार मूत्र-त्याग का वेग; इतनी पीड़ा कि रोगी चीख पड़े। मूत्र-त्याग के समय दर्द का जांघ के नीचे की ओर फैलना इसका लक्षण हैं। ऐसे दर्द में यह औषधि. पथरी तक को निकाल बाहर करती है।

सासधैरिला 6 — मूत्र-विसर्जन के पश्चात असह्य दर्द, मूत्राशय का तना होना। रोगी बैठकर मूत्र नहीं कर सकता। खड़े होकर आसानी से मूत्र उतरता है, बैठे रहने पर बूंद-बूंद टपकता है।

टैरिबिंथीना 6 — मूत्राशय तथा नाभि-प्रदेश में एक-दूसरे के बाद अतिशय जलन तथा काटे। विश्राम से रोग-वृद्धि तथा खुली वायु में चलने-फिरने से कष्ट का कम होना। नाभि से नीचे के प्रदेश में स्पर्श के प्रति असहिष्णुता; मूत्राशय में मरोड़, बैठे हुए मूत्र का दबाव, अपने आप मरोड़, दर्द उठकर मसाने तक जाता है। मूत्र में रक्त आने पर यह प्रसिद्ध औषधि है।

लैकेसिस 30 — मूत्र की हाजत होती है पर आता नहीं, जब आता है, तब अत्यंत जलन होती है। मूत्र नहीं आता, तो मल भी नहीं उतरता। मूत्र-त्याग के लिए लेट जाना पड़ता है।

चिमेफिला 200 — मूत्राशय-प्रदाह के साथ मूत्र में डोरीदार रक्त मिला श्लेष्मा निकलता है। रोगी को प्रतीत होता है मानो जननांग और मलद्वार के बीच के स्थान, सीवन में सूजन है या एक गोले जैसे पदार्थ पर रोगी बैठा है, जो मूत्र-त्याग में व्यवधान डाल रहा है। संभवतः इसी कारण रोगी खड़ा होकर और पैरों को चौड़ी कर मूत्र-विसर्जन करता है।

कैमोमिला 30 — मूत्र करते समय जलन का दर्द, मूत्र गरम, थोड़ा मैला और रक्त जैसा लाल। रोगी चिड़चिड़ा, अधीर, दर्द नहीं सह सकता, जरा-से दर्द से ही चिल्ला पड़ता है।

स्टैफिसैग्रिया 30 — बार-बार दर्द से मूत्र की हाजत होती है, मूत्र में रक्त आता है, अपने आप निकल जाता है, जहां लगता है, वहां की त्वचा छील देता है, जलन होती है। हरकत से रोगी की पीड़ा बढ़ जाती है, मूत्र-त्याग करते समय तथा बाद में बेहद जलन होती है।

ईक्विसेटम (मूल-अर्क) 6 — बच्चों तथा वृद्ध स्त्रियों में मूत्र अपने आप निकल जाने या मूत्रकृच्छ्र में कठिनाई या दर्द से मूत्र होने की यह सर्वोत्तम औषधि है। मूत्र करते समय जलन और काट अनुभव होती है और मूत्र भी बूंद-बूंद आता है। मूत्राशय भरा हुआ लगता है। यह औषधि उपयोगी है।

पल्सेटिला 30 — अत्यंत दर्द देने वाला, रक्तयुक्त, जलन वाला और लगने वाला मूत्र आना। मूत्राशय में मरोड़ होता है, ऐसा लगता है कि वह पूरा भरा हुआ है, इस स्थिति में यह औषधि देनी चाहिए। इसका रोग परिवर्तनशील स्वभाव का होता है, प्रायः लक्षण बदलते रहते हैं।

एपिस 30 — मूत्राशय-प्रदेश में भयंकर दर्द और पीड़ा; बार-बार दर्दसहित थोड़ा-थोड़ा रक्त मिला मूत्र, जिसमें जोर लगाने के बाद कुछ कतरे ही मूत्र उतरता है। इसमें यह औषधि लाभप्रद है।

एकोनाइट 30 — मूत्राशय तथा मसाने में शोथ हो जाता है; मूत्राशय में जलन, काटता-सा दर्द होता है, मूत्र में रक्त आ जाता है; कभी बेचैनी और डर के कारण भी ऐसा हो जाता है। .::

आर्निका 200, 1M — चोट आदि के कारण मूत्राशय में प्रदाह, मूत्रं की लगातार हाजत बनी रहती है, किंतु मूत्र अपने आप बूंद-बूंद टपकता है। रोगी मूत्र-त्याग के निमित्त बार-बार कोशिश करता है, किंतु मूत्र निकलने में उसे देर तक इंतजार करना पड़ता है, अपने आप मूत्र निकल जाता है। मूत्र अत्यंत जलन वाला होता है। रोगी अत्यंत रुग्ण होता है, ऐसे में यह उपयोगी है।

पेट्रोसिलीनम 3, 6 — जब रोगी मूत्र त्याग करता है, तब इतना दर्द होता है कि वह कांपने लगता है, भयंकर पीड़ा से चक्कर काटता रहता है। मूत्र-त्याग की हाजत बनी रहती है।

लाइकोपोडियम 30 — मूत्राशय-प्रदाह में, मूत्र में रेत के लाल कण पाए जाते हैं। मूत्राशय में भारीपन महसूस होता है, मूत्र का बोझ बना रहता है, कठिनता से देर में मूत्र उतरता है, तब दें।

सीपिया 200 — मूत्र-त्याग की आकांक्षा तथा वेग इतना प्रबल होता है, मानो जरायु ही निकलकर बाहर आ जाएगा। इस औषधि में मूत्र करने की इच्छा एकदम उठ खड़ी होती है, ऐसा दर्द होता है, मानों मूत्राशय में चाकू चल रहा है, सारे शरीर में ठिठुरन बढ़ जाती है।

डल्केमारा 30 — गर्मी से सर्दी हो जाना, विशेषकर गर्मी की हालत से बारिश में भीग जाना इस औषधि का विशेष लक्षण है। इस तरह भीग जाने पर यदि मूत्राशय-प्रदाह हो जाए, तो इसे देने से लाभ होता है। यह इस रोग की बहुत उत्तम औषधि है। दिन में 3 बार प्रयोग करें।

मर्क कोर 30 — मूत्राशय में मरोड़ पड़ता है। बूंद-बूंद मूत्र आता है, सख्त दर्द होता है, अल्प मात्रा में आता है, जलन होती है, रक्त भी आ जाता है, तब यह औषधि अत्यंत उपयोगी है।

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