Dhauti In Hindi

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धौति

घेरण्ड संहिता में इसकी विस्तृत व्याख्या की गई है। धौति चार प्रकार की हैं

  • अंतर्धौति
  • दन्तधौति
  • हृद्धौति
  • मूलशोधन

अंतर्धौति

अंतर्धौति का अर्थ शरीर के अंदर की शुद्धता (सफ़ाई) या आंतरिक प्रक्षालन। इसके लिए हम जल, वायु और वस्त्र का उपयोग करते हैं। अन्तधति भी चार प्रकार की हैं।

  • वातसार
  • वारिसार
  • अग्निसार
  • बहिष्कृत

वातसार धौति

दोनों होठों को कौए की चोंच के समान करके धीरे-धीरे वायु को पीएँ। पूर्ण रूप से वायु का पान कर लेने के पश्चात् पेट में उसका चालन-परिचालन करें और फिर धीरे-धीरे उस वायु को निकाल दें। यह वातसार धौति क्रिया है।
लाभ: इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है। उदर सम्बंधी रोग नष्ट होते हैं। शरीर की निर्मलता बढ़ती है।

वारिसार धौति (शंख-प्रक्षालन)

यह क्रिया कायाकल्प के नाम से भी जानी जाती है अतः यह महत्वपूर्ण क्रिया है। वारिसार धौति का पूर्णार्थ हुआ, ‘जलतत्व से धोना।’ इस क्रिया से साधक नव-यौवन प्राप्त कर लेता है। शरीर पूर्ण स्वस्थ होकर कांतिमान बन जाता है।
विधि: मुख द्वारा धीरे-धीरे इतना जल पिएँ कि कण्ठ तक भर जाए। फिर उदर-प्रदेश का संचालन करके अधोभाग (गुदा) से निकाल दें। यह वारिसार धौति अत्यंत गुप्त और शरीर को निर्मल करने वाला है। यह क्रिया नित्यप्रति और सावधानी पूर्वक करने से साधक देव तुल्य शरीर प्राप्त करता है।
व्याख्या: इस विधि को करने के कई प्रकार प्रचलित हैं। चूँकि इस विधि से शरीर के अंदर उदर-प्रदेश पूर्णतः शुद्ध हो जाता है अतः इसे करने से पहले कुछ तैयारी कर लेनी चाहिए। जो साधक इसका पूर्ण लाभ प्राप्त करना चाहते हैं वे दो-तीन दिन पूर्व इसकी तैयारी कर लें।
हमारा मत है कि यह क्रिया अधिकतर साधकगण ही करते हैं, अतः उनका खान-पान वैसे भी सादा रहता है। तब भी हम दो-तीन दिन पहले से अपना खान-पान हल्का रखें तो और भी अच्छा है। मिर्च, मसाले, खटाई, तेल, भारी भोजन और पेट भर भोजन करना सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। इससे शरीर शुद्धि करने में परेशानी नहीं होती। शंख-प्रक्षालन से पहले व बाद में ये चीजें लेनी चाहिए- मूंग की दाल, चावल की खिचड़ी, घी आदि भोजन सुपाच्य भी है और आरामदायक व हल्का भी है। जिस साधक ने अपने उदर-प्रदेश को महत्व दिया है वह हमेशा स्वस्थ रहता है। शंख-प्रक्षालन की क्रिया को विशेष महत्व इसलिए भी दिया जाता है। क्योंकि वह हमारे आमाशय की शुद्धि करता है। आमाशय में भोजन के कण, न पचने वाले भोज्य पदार्थ और मल इत्यादि चिपक जाता है तथा सड़ने लगता है। जिससे हमारे उदर-प्रदेश स्थित माँसपेशियाँ कमज़ोर हो जाती हैं और हमारे भोजन से वह पूर्ण रूप से उपयोगी तत्वों को ग्रहण नहीं कर पातीं। रक्त दूषित होने लगता है। वायु दोष उत्पन्न हो जाता है। नाड़ियाँ अशुद्ध हो जाती हैं जिसके कारण हम पूरी उम्र स्वस्थ नहीं रह पाते।
हमारी आँतें शंख की तरह घुमावदार होती हैं। जिस प्रकार शंख बजाने से पूर्व शंख में एक तरफ़ से पानी डाला जाता है एवं दूसरी तरफ़ से निकाल दिया जाता है, तो शंख क्रियाशील हो उठता है। उसी प्रकार मुख द्वार से जल पीकर मल-द्वार द्वारा विशेष विधि से निकाल दिया जाता है, जिससे शरीर योग साधना के लिए तैयार हो जाता है। यही क्रिया शंख प्रक्षालन के नाम से जानी जाती है।

शंख-प्रक्षालन

विधि

प्रथम विधि

आज कल कई योग केंद्रों में अपने-अपने तरीके से (साधक की परिस्थिति अनुसार) अभ्यास कराए जाते हैं। हम यहाँ अधिक प्रचलित क्रिया का वर्णन करेंगे।
एक बाल्टी में साफ़ छना हुआ पानी लें (कपड़े से छान लें ताकि कोई अशुचिता न रह जाए) उसे गरम करें और पानी को कुनकुना (पीने योग्य) कर लें। तत्पश्चात् उसमें साफ़ पिसा हुआ इतना नमक मिलाएँ कि पानी का स्वाद नमकीन हो जाए तब कागासन अर्थात कंधे के बराबर की दूरी पैरों में स्थापित करके बैठे।
प्रथम दो गिलास पानी जल्दी-जल्दी पी लें ताकि जल नीचे आँत तक चला जाए। अब गुरु निर्देशानुसार क्रमशः 1. तिर्यक भुजंगासन 2. तिर्यक ताड़ासन 3. कटि चक्रासन एवं उदराकर्षणासन इन चार आसनों की आठ-आठ आवृत्तियाँ करें। फिर दो गिलास पानी पीजिए एवं उपरोक्त आसनों की पुनरावृत्ति कीजिए। फिर दो गिलास पानी पीजिए एवं आसनों को दोहराइए। शौच को जाएँ, यदि शौच नहीं आता है तो पुनः दो गिलास पानी पीजिए अब आपको शौच अवश्य आएगा। पहले ठोस रूप में आएगा फिर पतला मल निकलेगा। शौच जाने के बाद पुनः जल का सेवन करें एवं आसन की पुनरावृत्ति करें। अब आपको शौच एकदम पतला पानी जैसा पीलापन लिए हुए निकलेगा। फिर से जल का सेवन करें। आपको शौच बिलकुल पानी जैसा ही साफ़ निकलेगा। ज़रूरी नहीं है कि आपका पेट बिलकुल साफ़ हो जाए। हो सकता है आपको इसके लिए आसनों की कई बार पुनरावृत्ति करना पड़े। जब आपका शौच पूर्णतः पानी जैसा ही निकलने लगे तो समझिए कि आँतों में चिपका मल पूर्णतः निकल गया है और आपकी शंख-प्रक्षालन की क्रिया पूरी हो गई है। अब चार गिलास पानी पीकर कुंजर क्रिया करें। सारा जल वमन कर बाहर निकाल दें। इसके बाद जल नेति करें। फिर लगभग 1 घंटे बाद तैयार की हुई मूंग की खिचड़ी शुद्ध देशी घी के साथ खाएँ।

द्वितीय विधि

पहले शंख प्रक्षालन की तरह ही साफ़ छने हुए पानी को गरम कर उसे कुनकुना कर लें। अब इतना नमक मिलाएँ कि स्वाद नमकीन हो जाए। उसके बाद दो नींबू निचोड़ दें और अच्छी तरह से मिला लें।
अब दो गिलास कुनकुना जल पिएँ और निम्नलिखित पाँच आसान क्रमपूर्वक चार-चार बार करें। (1) भुजंगासन (2) द्वि-पाश्र्वासन (3) पवनमुक्तासन (4) विपरीतकरणी आसन (5) हस्तपादासन। जब तक शौच जाने की इच्छा न हो तब तक जल पीते रहें और उपरोक्त आसनों को दोहराते रहें। चार-छः गिलास पानी एवं आसनों को दो या तीन बार दोहराने से मल त्यागने की इच्छा अवश्य होगी। तब साधक को तुरंत शौच के लिए जाना चाहिए। हो सकता है मल कड़क जाए। उसके बाद फिर से दो गिलास जल का सेवन करें और आसनों का अभ्यास करें। शौच न आ रहा हो तो फिर से दो गिलास जल पिएँ और आसनों का अभ्यास करें। इस बार मल पतला निकलेगा।
यह क्रिया आपको तब तक करनी है जब तक मलद्वार से साफ़ पानी न निकलने लगे। जब साफ़ पानी निकलने लगे तो समझना चाहिए कि पाचन-प्रणाली पूर्णतः मल रहित हो गई है। क्योंकि साफ़ पानी तभी निकलता है, जब आँतों में चिपकी अशुद्धि और मल पूर्णतः न निकल जाएँ। इसके पश्चात कुंजर- क्रिया अवश्य करनी चाहिए। लगभग चार गिलास पानी पीएँ एवं कुंजर- क्रिया के द्वारा पेट में भरा हुआ पानी निकाल दें। और नेति क्रिया भी करें तो अच्छा है।

तृतीय विधि

शंख प्रक्षालन में कहीं-कहीं पाँच प्रकार के आसन करवाए जाते हैं। उसमें जो आसन जोड़ा जाता है उसका नाम है ताड़ासन। उनके क्रम भी बदल जाते है। (1) ताड़ासन (2) तिर्यक ताड़ासन (3) कटि चक्रासन (4) तिर्यक भुजगासन (5) उदराकर्षणासन। बाकी विधि उपरोक्तानुसार ही है।
नोट: तीनों प्रकारों में आसनों के अभ्यास में ही अंतर है। बाक़ी अन्य क्रियाएँ पहले शंख प्रक्षालन की ही तरह हैं एवं लाभ भी एक जैसे हैं।

लघु शंख प्रक्षालन

विधि: उपरोक्त शंखप्रक्षालन की ही तरह कुनकुना पानी नमक सहित तैयार कीजिए। चूंकि प्रातःकाल का समय ही उचित रहता है अतः उसी समय कीजिए। दो गिलास (आधा लीटर) पानी पीजिए। पहली विधि में दिए आसनों की आठ-आठ आवृत्ति कीजिए। शौच जाने की इच्छा न हो तो दो गिलास पानी फिर पीजिए और आसनों को दोहराइए। यदि अभी भी शौच न आ रहा हो तो दो गिलास पानी पीजिए और आसनों की पुनरावृत्ति कीजिए। शौच अवश्य आएगा। अतः तुरंत मल का त्याग करें।
विशेष: चूँकि इस विधि में पूर्ण शंखप्रक्षालन की तरह जल का सेवन और आसनों को तब तक नहीं किया जाता जब तक आँतों की पूर्णतः शुद्धि हो जाए। अतः इस लघु प्रक्षालन में ज्यादा सावधानी की ज़रूरत नहीं पड़ती।
सावधानी: शौच जाने के बाद कम से कम 1 घंटा कुछ नहीं खाना चाहिए और उच्च रक्तचाप व निम्न रक्तचाप एवं किसी कारण से उदर-प्रदेश के रोगों से पीड़ित हो तो व्यक्ति योग्य शिक्षक की देख-रेख में करें।
नोट: जिन व्यक्तियों को क़ब्ज़ बनी रहती है वे चाहें तो सप्ताह में दो बार यह क्रिया (लघु-शंखप्रक्षालन) कर लाभान्वित हो सकते हैं।

शंख प्रक्षालन की क्रिया में आसन कैसे काम करते हैं – एक वैज्ञानिक पद्धति

शंख प्रक्षालन की क्रिया धैर्य एवं सजगता के साथ की जाती है। मुख से जल ग्रहण कर मलद्वार से निष्कासित करने की यह एक वैज्ञानिक विधि है। जब हम कागासन में बैठकर नमक मिला कुनकुना पानी पीते हैं, तो यह नमक मिले कुनकुना पानी से गला तथा आहार नली एवं अमाशय की सिंकाई व सफाई हो जाती है। जब प्रथम आसन तिर्यक भुजंगासन करते हैं तो यह अमाशय की धुलाई करता है। श्वास भरकर दाएँ-बाएँ मुड़ने से डायॉम का दबाव अमाशय पर पड़ता है तथा पाइलोरिक वाल्व को सम्पीड़ित करता है। जिससे अमाशय का जल छोटी आँत की तरफ़ तीव्रता से बढ़ता है तिर्यक ताड़ासन में पैरों को मिलाकर हाथों की अँगुलियों को आपस में गुम्फित कर उन्हें पकड़ते हुए श्वास भरकर दाएँ-बाएँ मुड़ते हैं। इससे पसलियों का दबाव छोटी आँत पर बगल से तथा डायफ्रॉम का दबाव ऊपरी तरफ़ से पड़ता है। छोटी आँत का जल बड़ी आंत में धकेल दिया जाता है। कटि चक्रासन में पैरों को लगभग एक फ़िट की दूरी पर स्थापित कर हाथों को सामने की ओर तथा ज़मीन के समानान्तर रखते हुए श्वास भरकर दाएँ-बाएँ कमर से जब मुड़ते हैं तब बड़ी आँत के ऊपर दबाब बढ़ता है और जल तथा मल मलाशय वाले भाग में चला जाता है। चूंकि मलाशय आहार नली का निचला हिस्सा होता है। अतः मलाशय वाले भाग पर दबाव उदराकर्षणासन से स्थापित किया जाता है। कागासन में बैठकर श्वास को भरकर हथेलियों को घुटनों पर रखते हुए बाएँ पैर के घुटने को दाहिने पैर के पंजे के पास लाते हैं एवं दाहिने पैर से पेट पर दबाव स्थापित करते हैं। यही क्रिया विपरीत पैर से भी करते हैं। उदराकर्षणासन मलाशय के ऊपर दबाव डालता है। जिससे मल एवं बाद में पानी बाहर निकलने लगता है। बार-बार उपरोक्त आसन करने से पहले कड़ा मल बाद में पतला मल एवं तत्पश्चात सिर्फ पानी ही निकलता है। यह क्रिया तब तक करते रहनी है जब तक साफ़ पानी न निकलने लगे। कभी-कभी शौच जाने की इच्छा होती है पर शौचालय में बैठने पर मल विसर्जन नहीं होता तब शौचालय में ही उदराकर्षणासन का अभ्यास कर लेना चाहिए।
कुञ्जल – शंख प्रक्षालन क्रिया के 15 मिनट पश्चात् बिना नमक के गर्म पानी पीकर कुजल कर लेना चाहिए तथा जल नेति भी करना चाहिए एवं उचित होगा कि क्रिया के बाद स्नान न करें। बंद कमरे में विश्राम करें।
आहार – लगभग 1 घण्टा होने पर हरी मूंग की दाल तथा चावल से निर्मित पतली खिचड़ी जिसमें नमक, हल्दी आदि न डाला हो, का आहार लिया जाए। खिचड़ी में लगभग 50 ग्राम शुद्ध घी डाल लेना चाहिए क्योंकि जो बार-बार नमक पानी पीने से खुश्की उत्पन्न होती है, वह धी के कारण समाप्त हो जाती है तथा चिकनाहट आ जाती है।
आयुर्वेदिक योग – काली मिर्च, गुलवनफ्सा डोंडाचूर्ण, तुलसी पत्र, बड़ी इलायची, अदरक, पुराना गुड़, काली मुनक्का आदि को उबालकर काढ़ा बना लिया जाए और पानी के स्थान पर यदि उक्त काढ़े का प्रयोग किया जाए तो उत्तम है।

शंख-प्रक्षालन (एक वैज्ञानिक कारण)

यदि हम अपने शरीर पर दृष्टि डालें और यह सोचें कि पूरे शरीर को कौन सा अंग विशेष रूप से प्रभावित करता है ? ऐसा कौन सा अंग है जो कि हमारे इस पूरे शरीर को पोषकता प्रदान करता है ? ऐसा कौन सा अंग है जिसके लिए व्यक्ति सुबह से शाम तक कमाता है तो उत्तर एक ही आएगा और वह है पेट (उदर) । आदमी इसी पेट के लिए सब कुछ करने को तैयार हो जाता है और इसी पेट की वजह से पूरा शरीर संचालित होता है।
अब चूँकि हमें मालूम है कि इसी पेट की वजह से हमारा शरीर, अस्वस्थ होता है तो क्यों हम इस पेट में ख़राब वस्तु डालें अर्थात् हम क्यों ऐसी खाद्य सामग्री का सेवन करें जो कि हमें आज नहीं तो कल नुक़सान पहुँचाएगी और जिसके कारण हमारे पूरे उदर-प्रदेश का प्रबंधन ख़राब होता है। जिसकी वजह से सैकड़ों प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। क़ब्ज़ होता है, इस कारण आँतों में मल चिपक कर सड़ता रहता है जिस कारण विषाक्त वायु पैदा होती है। रोगों को उत्पन्न करने वाले बीजाण, कीटाण बनने लगते हैं और यदि हम देखें तो बाहर से बीमारियों का हमला कम ही होता है। आदमी अपने अंदर ही सैकड़ों बीमारियों को जन्म देता है।
शंख प्रक्षालन की क्रिया से अंदर आँतों में मल नहीं चिपक पाता। मल नहीं चिपकता तो रोगाणु नहीं पनप पाते, दुर्गधित वायु उत्पन्न नहीं हो पाती। आँतों के साफ़ होने से भूख ठीक ढंग से लगती है। पाचन तंत्र हमारे आहार में से पूर्णतः विटामिन, प्रोटीन को खींच लेते हैं जिससे हमारे पूरे शरीर को उचित पोषण मिलता है। हमारा शरीर सुगठित होता है। हमारे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है अतः बाहर के कीटाणु भी निष्क्रिय हो जाते हैं। हम पूर्णतः स्वस्थ हो जाते हैं। जिससे हमारा मस्तिष्क भी अच्छा कार्य करता है, स्मरण शक्ति तेज़ हो जाती है। आँखें निर्मल होती हैं। चेहरे पर तेज बढ़ जाता है। शरीर की वृद्धि उचित ढंग से होती है। रक्त विकार नहीं हो पाता। हमारे अंदर होने वाले विकार जैसे काम, क्रोध, चिड़चिड़ापन, आलस, थकान, सुस्ती आदि आंतरिक विकार उत्पन्न नहीं होते। वात, पित्त, कफ़ नहीं बन पाते अतः उनसे होने वाले रोग भी नहीं होते।
इस प्रकार हम देखें तो शंख प्रक्षालन की क्रिया पूर्णतः वैज्ञानिक है जिसके लाभ हमें साक्षात् दृष्टिगोचर होते हैं। अतः हमें अपने जीवन में शंख प्रक्षालन की क्रिया कम से कम एक-दो बार करके उसकी अनुभूति अवश्य करनी चाहिए।
गुरुदेव योगाचार्य फूलचन्द योगीराज हमेशा षट्कर्मों पर विशेष महत्व देते हैं उनके द्वारा रचित कविता यहाँ प्रस्तुत है:

कुन्जल/गजकरणी के लिए

बंधु निशदिन शोधिये देह मलिन मलद्वार,
जिनसे बहता रहे अतिघृणित अपावन सार।
घृणित अपावन सार देह में व्याधि बढ़ावे,
मल संचय मान नित्य षट्कर्म करावे।
कहते ‘योगीराज’ स्वास्थ्य का मर्म यही है,
देह शुद्ध हो जाए वात कफ पित्त सही है।

शंख-प्रक्षालन के लिए

देह ताप अनुसार ही पानी गर्म कराय,
ख़ाली पेट पिलाइये सेंधा नमक मिलाय।
सेंधा नमक मिलाय पंच आसन करवाए,
आसन के उपरांत पुनः शौचालय जावे।
कहते योगीराज अंत गजकरणी करिए,
नेति क्रिया कराय पेट का पानी हरिए।

लाभ

वायु घटे गर्मी घटे चर्म रोग मिट जाए,
जठराग्नि को तेज़ कर कफ़ को देय नशाय।
कफ़ को देय नशाय अजीरण शीघ्र पछारे,
खांसी रोग विनशाय नाड़ियाँ सभी सुधारे।
कहते ‘योगीराज शक्ति कुंजर सी लहिये,
कुंजर क्रिया कराय सदैव निरोगी रहिए।
तन शुद्धि आलस हटै बवासीर मिट जाए,
चर्म रोग इत्यादि भी कभी न टिकने पाए।
कभी न टिकने पाय भगन्दर व्याधि नशावे,
तन पुरुषत्व बढ़ाय ओज अरु आभा आवे।
कहते ‘योगीराज’ रक्त रस वृद्धि करीजै,
उचित रीति अपनाय शंख प्रक्षालन कीजै।

शंख-प्रक्षालन के लाभ

शंख-प्रक्षालन क्रिया से कई लाभ प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार है।

  • शंख प्रक्षालन ही मात्र एक ऐसी क्रिया है, जो मुँह से लेकर मलद्वार तक की सफ़ाई करती है।
  • पेट की कृमि एवं आँतों में पनपने वाले अमीवा को यह बाहर निकाल देता है और नूतन पाचक रसों को श्रावित कर पाचन सँस्थान का कायाकल्प कर देता है।
  • यदि उपरोक्त विधि व सावधानियों का पालन किया जाए तो मोटापे से पीड़ित व्यक्ति का वजन सप्ताह भर में 3 से 4 किलो तक कम हो जाता है और दुबले-पतले क्षीण काय व्यक्ति में नवीन ऊर्जा का संचार होता है।
  • उदर-विकार सम्बंधी समस्त बीमारियों का नाश होता है। चाहे वह क़ब्ज़ हो, वायु दोष हो, पित्त दोष हो या कफ़ दोष हो, इस प्रकार यह त्रिदोष नाशक है।
  • शरीर का कायाकल्प करके यौवन प्रदान करता है। चर्म रोग मिटाता है।
  • आज विकराल रूप ले चुका मधुमेह इस क्रिया से शनैः शनै नाश को प्राप्त होता है। आलसपन समाप्त होता है।
  • इस क्रिया के बाद व्यक्ति स्वयं को हल्का व पूर्ण स्वस्थ महसूस करता है। साथ ही मानसिक रूप से भी पूर्ण स्वस्थ रहता है।
  • सिर दर्द (किसी भी प्रकार का) पूर्णतः ठीक हो जाता है।
  • आँखें सुंदर, बड़ी, आकर्षक एवं निरोग हो जाएँगी।
  • चेहरा सुंदर, तेजवान व चमकदार हो जाता है।
  • रक्त दोष दूर होता है। मुँह से निकलने वाली दुर्गन्ध का नाश होता है।
  • शंख-प्रक्षालन की क्रिया के बाद आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध, ध्यान एवं कुण्डलिनी जागरण में विशेष लाभ मिलता है।
  • यह क्रिया शरीर के लिए अद्भुत एवं अमृत के समान है। पुरुषत्व शक्ति में वृद्धि होती है।
  • बावासीर एवं भगंदर रोग में लाभ।

शंख-प्रक्षालन की सावधानियाँ

  • दूध एवं दूध से बनी सामग्री मिर्च मसाले खटाई तथा गरिष्ठ आहार का शंख प्रक्षालन के बाद एक हफ्ते तक प्रयोग वर्जित है।
  • शंख-प्रक्षालन के बाद कुंजल क्रिया एवं जल नेति ज़रूर करें ताकि आपके मुख से लेकर उदर-प्रदेश एवं नाक तक की सफ़ाई हो जाए।
  • शंख-प्रक्षालन के तुरंत बाद स्नान न करें कम से कम उस दिन ठंडे जल से स्नान न करें। इस क्रिया के बाद आराम करें पर सोएं नहीं।
  • अति मेहनत का काम न करें।
  • एक हफ्ते तक हल्के व्यायाम करें। योगासन की जटिल क्रिया न करें।
  • निम्नरक्तचाप उच्च रक्तचाप एवं मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्ति न करें।
  • तीव्र उदर-विकार से ग्रसित व्यक्ति न करें।
  • गर्भवती स्त्रियाँ न करें।

अग्निसार धौति

नाभिग्रंथि मेरुपृष्ठे शतवारं च कारयेत।
अग्निसारमिद्यं धौतियॊगिनां योगसिद्धिदा॥
उदरामयजं त्वकत्वा जठराग्नि विवर्द्धयेत्।
एषा धौतिः परा गोप्या देवानामपि दुर्लभा।
केवलं धौतिमात्रेण देवदेहं भवेधुवम्।।
(घे.सं. 1/19-20)
विधि: अग्निसार धौति के लिए प्राणवायु को कुंभक करके नाभि को मेरुपृष्ठ भाग पर लगाएँ। इससे पेट के समस्त रोग नष्ट होते हैं। यह अग्निसार धौति कर्म अत्यंत गोपनीय और देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। यह क्रिया करने से मनुष्य का शरीर देवों के समान हो जाता है।
भावार्थ: किसी उपयुक्त आसन पर बैठ जाएँ। जिससे यह क्रिया करना आसान हो। जैसे वज्रासन, पदमासन, सिद्धासन आदि। मेरुदण्ड सीधा रखें। लंबी व गहरी श्वास लें एवं मुँह से पूरे पेट की वायु को निकाल दें। अब बहिर्काभक करें ताकि नाभि मेरुदण्ड के अंदरूनी हिस्से को स्पर्श करें। इसी अवस्था में पेट को तीव्र गति से अंदर बाहर करना है। लगभग 10 से 15 बार अपनी क्षमतानुसार करें। तब धीरे-धीरे श्वास लें। यही क्रिया पुनः करें। इस क्रिया से उदर-प्रदेश का प्रसारण और संकुचन होता है। पेट के सभी अंगों का व्यायाम हो जाता है जिससे वह सुचारु रूप से काम करने लगते हैं व उनकी कार्यक्षमता बढ़ जाती है।
विशेष: खाली पेट करें। उपरोक्त क्रिया 3-4 बार करें। गुरु के निर्देश में ही करें।
सावधानी: यह बात विशेष रूप से ध्यान देने वाली है कि हृदय रोगी/उच्च रक्तचाप/ उदर के जटिल रोग/ अस्थमा आदि रोगों में न करें।
लाभ: उदर-प्रदेश के सभी अंगों की मालिश हो जाती है। अतः सभी अंग सुचारु रूप से काम करते हैं और उनकी कार्यक्षमता बढ़ जाती है। जठराग्नि और पाचन तंत्र शक्तिशाली होता है। उदर-विकार का नाश होता है अतः पूर्ण शरीर में स्वस्थता बनी रहती है। शरीर में ओज, तेज की वृद्धि हो जाती है। जिस कारण साधक देव सदृश प्रतीत होता है।

बहिष्कृत अंतर्धौति

काकीमुद्रां शोधयित्वा पूरयेदुदरं मरुत।
धारयेद्ध्यामं तु चालयेदधोवर्मना।
एषा धौतिः परा गोप्या न प्रकाश्या कदाचना॥
(घे.सं. 1/21)
विधि: दोनों होठों को कौवे की चोंच के समान करें। वायुपान करते हुए उदर को । पूरा भर लें तथा उस वायु को डेढ़ घंटे तक उदर में रोकें। तत्पश्चात् परिचालन करके गुदामार्ग से बाहर निकाल दें यह परम गोपनीय बहिष्कृत् धौति है।
विशेष: यह क्रिया किसी योग्य गुरु के निर्देश में करें। यह एक कठिन प्र क्रिया है।

लाभ

  • सभी नाड़ियाँ शुद्ध होती हैं। ।
  • शरीर युवा बना रहता है।
  • शरीर में नई शक्ति का संचार होता है।
  • वात-रोगों का शमन होता है।

प्रक्षालन कर्म

नाभिमग्नजले स्थित्वा शक्तिनाड़ीं विसर्जयेत्।
कराभ्यां क्षालयेन्नाड़ी यावन्मलविसर्जनम्॥
तावत्प्रक्षाल्य नाड़ीं च उदरे वेशयेत्पुनः।
इदं प्रक्षालनं गोप्यं देवानामपि दुर्लभम्॥
केवलं धौतिमात्रेण देवदेहो भवेद् ध्रुवम्।।
(घे.सं. 1/22-24)
अर्थ: नाभिपर्यंत जल में खड़े होकर शक्ति नाड़ी को बाहर निकालकर जब तक मल दूर न हो तब तक धोएँ या प्रक्षालित करें। जब साफ़ हो जाए तब उसको वापस अंदर कर दें। यह प्रक्षालन क्रिया बहुत ही कठिन है देवताओं को भी दुर्लभ है और इस प्रक्षालन धौतिकर्म मात्र से देवताओं के समान शरीर हो जाता है।
विशेष: यह धौति अत्यंत कठिन है। यह धौति उस गुरु के निर्देशन में करें जो स्वयं यह करने में समर्थ हो। पुस्तकों के आधार पर या किसी के कहने से नहीं करना चाहिए। यहाँ एक बात महत्वपूर्ण है कि “यह देवताओं को भी दुर्लभ है” कहने का आशय है कि अच्छे-अच्छे ज्ञानी, विद्वान लोगों को भी यह ज्ञात नहीं है। दूसरा “देवताओं जैसा शरीर हो जाता है” अर्थात् शरीर का ओज, तेज, कांति व बल इतना अधिक हो जाता है कि वह शरीर देवताओं के समान प्रतीत होता है।
हम इतना कहेंगे कि उपरोक्त सभी धौति क्रमशः धैर्यपूर्वक अनुकूलतानुसार, योग्य शिक्षक व स्वतः के अभ्यस्त होने पर ही करें।

दंत धौति

दन्तमूलं जिह्वामूलं रन्धं च कर्णयुग्मयोः।
कपालरन्ध्र पंचैते दन्तधौतिर्विधीयते॥ (घे.सं.-1/25)
अर्थ: दंत धौति के पाँच प्रकार हैं –

  • दाँतों की जड़ों को धोना (दंत मूल) ।
  • जीभ मूल को धोना।
  • दायाँ कान।
  • बायाँ कान
  • कपाल छिद्र का प्रक्षालन।

दंत मूल धौति

किसी अच्छे मंजन से दाँत माँजना चाहिए। योगियों को यह साधन दाँतों के कई रोगों से सुरक्षा के लिए प्रतिदिन अवश्य करना चाहिए।

जिह्वा शोधन धौति

जिव्हा शोधन द्वारा जीभ को लंबी करके जरा, मरण और कई रोग का नाश हेतु यह क्रिया करनी चाहिए।
तर्जनी मध्यमा और अनामिका इन तीनों अँगुलियों को मिलाकर मुँह में डालकर जीभ के मूल को साफ़, स्वच्छ करना चाहिए। शनैः शनैः करने से कफ़ दोष का नाश होता है। उपरांत जीभ में मक्खन लगा लें और दोहन करें (दूध दुहने जैसी क्रिया) ऐसा करने से जीभ की लंबाई बढ़ जाती है।
जिव्हा शोधन धौति से कफ़ का नाश होता है। इससे सम्बंधित नाड़ियाँ शुद्ध होती हैं। जीभ हमेशा साफ़ और मुलायम बनी रहती है।

कर्ण धौति

यह दंत धौति का तीसरा प्रकार है। तर्जनी और अनामिका अँगुलियों से प्रतिदिन कर्ण-छिद्रों की सफ़ाई करें। प्रतिदिन करने से नाद की अनुभूति होती है। इससे कान की सफ़ाई हो जाती है। अंदर से निकलने वाला मल एवं बाहर से अंदर जाने वाला कचरा दोनों साफ़ हो जाते हैं। अतः कान के अंदर कीटाणु नहीं पनप पाते एवं कर्ण-रोग होने की संभावना कम हो जाती है।

कपालरंध्र धौति

सिर के बीच में जिसे हम कपाल रंध्र कहते हैं उसको दाहिने हाथ से हल्के-हल्के पानी द्वारा थपकी देना चाहिए। ऐसा करने से कफ़ दोष का निवारण होता है। इससे सम्बंधित नाड़ियाँ निर्मल और शुद्ध होती हैं। साधक को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। इसका अभ्यास प्रातःकाल, भोजन उपरांत और संध्या के समय करना चाहिए।

हृद धौति

हद्धौतिं त्रिविधां कुर्याद्दण्डवमनवाससा।। घे.सं. 1/35।।
अर्थ: हृदय धौति के तीन प्रकार है- दण्ड धौति, वमन धौति और बसन धौति (वस्त्र धौति) जो कि हृदय का शोधन करने वाली है।

दण्ड धौति ।

विधि: केले के पौधे के बीच स्थित दण्ड अथवा हल्दी का दण्ड या चिकने बेंत का दण्ड गले द्वारा उस दण्ड को धीरे-धीरे प्रवेश कराएँ और पुनः उसे धीरे-धीरे निकालें। अर्थात उस दण्ड को गले द्वारा अंदर-बाहर धीरे-धीरे करें यह दण्ड धौति कफ़. पित्त, तथा क्लेश (अकुलाहट) आदि विकारी मलों का शमन करती है। इससे हृदय के समस्त रोगों का नाश होता है।

विशेष

  • अधिकतर केले के पौधे से निकाले गए दण्ड का ही प्रयोग किया जाता है।
  • किसी योग शिक्षक की देख-रेख में करें।

वमन धौति

भोजनान्ते पिबेद्वारि-चाकण्ठं पूरितं सुधीः
उर्ध्व द्रष्टिं क्षणं कृत्वा तज्जलं वमयेत्पुनः।
नित्यमभ्यास योगेन कफपित्तं निवारयेत् ।
(घे.स.1/38-39)
अर्थ: साधक को भोजन के अन्त में गले तक पानी पीकर तत्पश्चात कुछ देर बाद ऊपर की ओर देखते हुए उसे वमन के द्वारा निकाल देना चाहिए। इस प्रयोग से कफ़ और पित्त का निवारण होता है।
इस वमन धौति के दो प्रकार हैं। पहले प्रकार के अभ्यास को खाली पेट किया जाता है। जिसे कुजल या गजकरणी कहते हैं। दूसरी विधि में साधक भोजन के पश्चात करता है, जिसे व्याघ्र क्रिया या बाघी क्रिया कहते हैं।

कुञ्जल क्रिया/गजकरणी क्रिया

विधि: लगभग दो लीटर जल कुनकुना लें। उसमें लगभग दो चाय के चम्मच के बराबर नमक डाल दें किसी ऐसी जगह का चयन कर लें, जहाँ पर आप आसानी से वमन क्रिया को कर सके। अब कम से कम छः गिलास पानी तुरंत जल्दी-जल्दी पी लें। आपको लगता है कि इससे भी अधिक पानी पी सकते हैं तो पीएँ (धीरे-धीरे या बँट-घूट करते हुए पानी न पीएँ) अब आपको वमन करने की इच्छा होगी सामने झुकें, और सिर एवं धड़ को लगभग ज़मीन के समानान्तर या कमर से ऊपर के धड़ को समकोण सा बना लें। मुँह खोले और अपने दाहिने हाथ की मध्यमा और तर्जनी अँगुली को अंदर डाले एवं जीभ के पिछले भाग का हल्के-हल्के अँगुलियों से रगड़े ऐसा करने से वमन होना शुरू हो जाएगा। अमाश्य का पूरा जल तेजी से बाहर निकल जाएगा। इस प्रकार अमाशय को बिल्कुल खाली करने के लिए दो-तीन बार अँगुलियों का सहारा लें। इस क्रिया द्वारा अमाशय साफ होने से निकलने वाला जल भी साफ निकलेगा।

व्याघ्र क्रिया या बाघी क्रिया

विधि: यह क्रिया उदर में बिना पचा हुआ भोजन या अपच हो जाने पर वमन धौति की इस क्रिया द्वारा निकाल दिया जाता है।
सामान्यतया भोजन के आधे घंटे बाद तैयार किया हुआ जल को लगभग 5-6 गिलास या जितना अधिक पेट में पानी आ सके, पीएँ। उपरोक्त पद्धति की तरह अमाशय में भरे हुए पानी और अपचे भोजन को वमन क्रिया द्वारा निकाल दें। यदि ऐसा लगता है कि अभी वमन क्रिया और की जा सकती है तो दोबारा पानी पीकर अमाशय के ख़राब जल को बाहर निकाल दें। इसके बाद जल नेति क्रिया कर लें।

सावधानियाँ

  • वमन क्रिया में बहुत अधिक जोर न लगाये एवं मन को इस क्रिया के लिए तैयार कर लें।
  • पूर्णतः अमाशय खाली हो जाता है। अतः कम से कम 30 मिनिट तक कुछ न खाएँ।
  • निम्नरक्त चाप, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, मिर्गी, तीव्र पैप्टिक अल्सर और हार्निया वाले इन अभ्यासों को दूर रखें और इस संदर्भ में योग गुरू से बात करें।

लाभ

  • इन क्रियाओं से अल्सर और अति अम्लता वाले रोग नहीं होते।
  • पित्त शान्त होता है। सिरदर्द, माइग्रेन (आधासीसी दर्द) में बहुत ज्यादा फ़ायदा होता है।
  • सड़े हुए भोजन को बाहर निकाल कर मुँह से आने वाली दुर्गन्ध समाप्त होती है।
  • भारीपन, क़ब्ज़, मितली आदि से छुटकारा मिलता है।
  • उदर प्रदेश के अवयवों को उद्दीप्त करती है जिससे पाचन सम्बन्धी विकार दूर होता है।
  • गैस की समस्या से छुटकारा मिलता है।
  • सर्दी-खाँसी में लाभ मिलता है।
  • आँखों की रोशनी बढ़ती है।

वसन धौति (वस्त्र धौति)

इस क्रिया में चार अँगुल चौड़ा और पाँच हाथ लंबा महीन कपड़ा लेकर धीरे-धीरे निगल जाएँ। फिर धीरे-धीरे इस कपड़े को बाहर निकालें। यह वस्त्रधौति कहलाती है।
विधि: लगभग 2 इंच चौड़ा कपड़ा और लगभग 8 फिट लंबा सूती (कॉटन) का महीन कपड़ा मुँह के द्वारा धीरे-धीरे निगलें। कपड़े का पहले वाला हिस्सा जब जठर तक अंदर पहुँच जाए तब धीरे-धीरे कपड़े को वापस निकाल लें।
यह अभ्यास मौन रहते हुए प्रातः समय में खाली पेट करें। इसके अभ्यास से गुल्म रोग, ज्वर, प्लीहा रोग, कुष्ठ रोग और पित्त एवं कफ़ का नाश होता है। इस प्रयोग से शारीरिक बल, सुख व निरोगता दिनोदिन बढ़ती है।

मूल शोधन (गणेश क्रिया)

जब तक पेट साफ़ नहीं होता तब तक अपान वायु की क्रूरता बनी रहती है। गुदा से वायु कष्ट से निकलती है। अतः मूल शोधन अवश्य करना चाहिए।
इस क्रिया के लिए हल्दी की कोमल जड़ से या फिर अपने हाथ की मध्यमा अँगुली से गुदा द्वार साफ़ करना चाहिए। मध्यमा अँगुली को गीला करके धीरे-धीरे गुदा के अंदर प्रवेश कराएँ और अंदर अँगुली को धीरे-धीरे चलाएँ। अंदरूनी हिस्से की दीवार को अँगुल से साफ़ करें। ऐसा करने से अपान वायु द्वारा कष्ट नहीं होता है।
मूलशोधन क्रिया से गुदा में जमे कड़े मल का निष्कासन होता है और वायु द्वारा होने वाले रोगों में कमी आती है। अजीर्ण दूर होता है। जठराग्नि तेज़ होती है। शरीर की कांति बढ़ती है और देवों की जैसी पुष्टता प्राप्त होती है।

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