Meditation effect on mind In Hindi

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ध्यान का मन पर प्रभाव

ध्यान करने का मुख्य उद्देश्य मन में स्थिरता लाना है जो प्रायः मन में नहीं होती और आसानी से विचलित होती रहती है। अस्थिर मन किसी भी समस्या के निदान व समाधान के योग्य नहीं होता। इसके विपरीत, यह समस्या को और अधिक उलझा देता है। अस्त-व्यस्त मन परिस्थितियों का कुछ ही लाभ ले पाता है अधिकतर असफल ही रहता है।
मानसिक शांति हर किसी को चाहिए जो इच्छाओं के रहते संभव नहीं। हमारी अनंत इच्छाएँ ही मानसिक अशांति का कारण हैं। मानव के समाज में रहते उसका मन सदैव चंचल बना रहता है। यदि मानव समाज में रहते हुए शांति चाहे तो ध्यान का सहारा लेना पड़ेगा अन्यथा वह परिस्थितियों व समस्याओं से पलायन करेगा।
भारतीय ऋषियों के अनुसार आत्मा ही ज्ञान का आदि स्रोत है। यह ज्ञान हृदय से तभी प्रवाहित होता है जब मन पूर्णतः शांत व अंतर्मुखी होता है। मन की अस्थिरता से ज्ञान के बहुत से दरवाज़े बंद हो जाते हैं जबकि शांत व अंतर्मुखी मन ज्ञान के नए आयामों को खोल देता है। अर्थात् ज्ञान के लिए मन की वह अवस्था चाहिए जो स्थिर, एकाग्र, शांत व अंतर्मुखी हो। अन्यथा मन व्यर्थ कल्पनाओं में खोया रहता है। मन को किसी भी कल्पना से खाली करने का उपाय है ध्यान। इससे मन सहनशील, शांत, सूक्ष्म व हल्का होता है। ध्यान के दैनिक प्रयोग से शांति लगातार प्रवाहित हो मन में शालीनता, निरहंकारिता, साहस व धैर्य जगाती है। ध्यानजनित विश्राम मन को तनावों से मुक्त करता है। निराश मन में आशा का संचार होता है। सारांश में कहें तो ध्यान द्वारा मन को एक नया ताज़गी से भरा पुनर्जीवन प्राप्त होता है।
ध्यान के द्वारा मन सांसारिक व आध्यात्मिक दोनों उपलब्धियाँ प्राप्त करता है। जब वह बहिर्मुखी होता है तब सांसारिक होता है, जब अंतर्मुखी होता है तो आध्यात्मिक उपलब्धियाँ प्राप्त करता है। जगत् में श्रेष्ठतम जीवन निर्वाह के लिए दोनों ही दिशाएँ आवश्यक हैं। मन को एक ही विषय पर प्रतिदिन एकाग्र करने पर इसकी क्षमता बढ़ती जाती है। ध्यान के इसी विज्ञान का उपयोग मन की क्षमताओं के विकास में किया जाता है। लेखकों, कलाकारों, संगीतज्ञों, चित्रकारों, गायकों, वैज्ञानिकों में इस तरह से मन की क्षमता विकसित होती देखी गई है। जाने-अनजाने हर व्यक्ति हर समय ध्यान ही कर रहा है, परंतु एक विषय पर नहीं, जिससे उसकी अंतर्निहित क्षमता जाग जाए। हाथों से काम करने वाले श्रमिक व मन-मस्तिष्क से काम लेने वाले बुद्धिजीवी दोनों ही ध्यान द्वारा शक्ति व शांति प्राप्त करते हैं।
ध्यान से मस्तिष्क से एल्फ़ा तरंगें निकलती हैं जो मन में शांति व सृजनशीलता लाती हैं। ध्यान का प्रयोग न कर सकने वाले नींद व मन की शांति के लिए ड्रग्स का सहारा लेते देखे गए हैं परंतु उसके साइड इफेक्ट्स अधिक हैं। ध्यान से मस्तिष्क के दाहिने व बाएँ दोनों गोलार्दो के कार्यों में संतुलन आता है। मस्तिष्क की चयापचयन-प्र क्रिया सही कार्य करती है। ध्यान करने से इन्द्रियों की बोध क्षमता में व मन व बुद्धि की समझने व निर्णय लेने की क्षमता में आश्चर्यजनक विकास देखा गया है। स्मरण शक्ति, भावनात्मक सहानुभूति व नींद में गुणात्मक सुधार होता है। व्यर्थ चिंता व व्यसन कम होते हैं। हमारी आदतें बदलने व नई आदतें डालने में ध्यान अति सहायक सिद्ध होता है।
आध्यात्म में मन व विचारों के प्रति इतनी विमुखता क्यों पाई जाती है ? इसलिए कि मन ही बंधन व मोक्ष का, सुख-दुःख का कारण है। मन के न रहते ही न बंधन है न मोक्ष, सुख है न दुःख। ध्यान के द्वारा मन की वह स्थिति पाई जाती है जहाँ मन-अ-मन (शांति) व नमन (ईश्वर को समर्पित) हो जाता है।

योग से सम्बंधित भ्रामक धारणाएँ

योग के सम्बंध में कई तरह की भ्रामक धारणाएँ समाज में फैली हुई हैं। सामान्यतः हमारे समाज में योग के संदर्भ में सबसे पहले यह भ्रांति प्रचलित है कि योग का सम्बंध किसी व्यक्ति विशेष या किसी महान आत्मा अथवा योगी, सन्यासी से है। यह विद्या अत्यंत कठिन व कुछ व्यक्ति विशेष के लिए है सामान्य व्यक्तियों के लिए नहीं या सामान्य व्यक्ति इसका उपयोग अथवा इसकी जानकारी नहीं रख सकते हैं जो कि पूर्णतः गलत व भ्रामक धारणा है। जबकि इसके विपरीत योग एक सहज, सुलभ मार्ग है। अपने जीवन को, अपने शरीर को और अपने मन को सुंदर और स्वच्छ बनाने में योग की विशिष्ट भूमिका है।
योग जीवन जीने की एक कला के रूप में विकसित हुआ एक वैज्ञानिक मार्ग है जिसे हम निम्न सारिणी में आसानी से समझ सकते हैं –

  • योग सामान्य व्यक्ति के लिए नहीं है?

क्र.

भ्रामक धारणाएँ

सही तथ्य

1

योग केवल साधु-सन्यासियों के लिए है।

योग साधु से लेकर अत्यंत सामान्य व्यक्ति तक सभी अपना सकते हैं।

2

योग के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक है।

योग का अभ्यास विवाहित व्यक्ति भी कर सकते हैं।

3

योग के लिए घर छोड़कर एकांतवास आवश्यक है।

व्यक्ति गृहस्थ में रहकर भी इसका अभ्यास कर सकता है।

4

योग का सम्बंध केवल हिंदू धर्म धर्म से है।

योग एक प्रायोगिक कला है। जिसे किसी भी वर्ण, धर्म या जाति से नहीं जोड़ा जा सकता। अतः हर व्यक्ति अपने आत्म-उत्थान के लिए योग का उपयोग कर सकता है।

  • केवल आसन, प्राणायाम ही योग है।

योग के सम्बंध में ग़लत भ्रामक धारणा यह है कि केवल आसन, प्राणायाम ही योग हैं। अधिकांश व्यक्ति आसन, प्राणायाम को ही योग समझकर एवं इसका अभ्यास करके योग की इतिश्री समझ लेते हैं, जबकि वास्तव में योग एक विस्तृत विषय है। इसका परम लक्ष्य कैवल्य है जो कि व्यक्ति के विकास का सर्वोच्च शिखर है। महर्षि पतंजलि ने योग का विस्तार यम से लेकर समाधि तक अष्टांग मार्ग के रूप में हमें बताया है जिसमें आसन, प्राणायाम उसके दो अंग मात्र हैं। अतः केवल आसन, प्राणायाम ही योग नहीं हैं योग इससे कहीं आगे के सोपानों का लक्ष्य हमारे सम्मुख रखता है।

  • योग एक चमत्कार है।

योग के संदर्भ में यह भी एक गलत धारणा प्रचलित है कि योग एक चमत्कार है। अथवा इसका सम्बंध या इसकी उपलब्धि चमत्कारों से परिपूर्ण है जो कि हमारी भ्रामक सोच को बताती है क्योंकि योग का सम्बंध किसी तरह के चमत्कार से नहीं है। इसके विपरीत योग चमत्कार को साधना मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए एक बाधा मानता है। योग के अंतर्गत जिस सिद्धि का वर्णन किया गया है उनका उल्लेख व्यक्ति के लिए एक चेतावनी के रूप में किया जाता हैं न कि चमत्कार के रूप में। अतः हम कह सकते हैं योग चमत्कार नहीं है।

  • योग एक चिकित्सा शास्त्र है

प्राचीन समय से लेकर वर्तमान युग तक योग के विभिन्न अर्थ व उपयोग व्यक्तियों द्वारा गढ़े गए। उसमें से एक भ्रामक धारणा यह है कि योग एक चिकित्सा शास्त्र है, जबकि वास्तविक तथ्य यह है कि जिस प्रकार गेहूँ के साथ चारा स्वतः ही प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार योग के अंतिम लक्ष्य कैवल्य की ओर जाने हेतु निःयोगांगों का उपयोग करते हैं। इसके कारण हमें विभिन्न बीमारियों से छुटकारा मिलने के साथ-साथ एक पूर्ण शारीरिक लाभ भी प्राप्त होता है किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं कि योग एक चिकित्सा शास्त्र है।

  • योग केवल तत्व ज्ञान है

योग के सम्बंध में कई दार्शनिकों द्वारा चर्चाएँ करने एवं उसमें निहित तथ्यों का उपयोग करने के कारण जन सामान्य में यह धारणा भी इन्हीं से फैली है कि योग एक तत्व ज्ञान का विषय है जिसके अंतर्गत ईश्वर, आत्मा, मोक्ष इन सभी की विवेचना करते हैं। इसके विपरीत योग इन सभी की चर्चा मात्र समझने एवं हमारे मार्ग को स्पष्ट करने हेतु करता है ताकि हम जिस गंतव्य की ओर बढ़ रहे हैं। उसका पृथक ज्ञान हो। चूँकि योग एक प्रायोगिक विषय भी है अतः हम कह सकते हैं कि योग केवल तत्व ज्ञान नहीं है।

  • योग एक व्यायाम पद्धति है

योग के सम्बंध में प्रायः लोगों की धारणा बनी हुई हैं योग एक व्यायाम पद्धति है, जिसका उपयोग शारीरिक स्वास्थ्य हेतु करते हैं, जो कि पूर्णतः ग़लत है क्योंकि योग का लक्ष्य केवल शारीरिक स्वास्थ्य नहीं अपितु मानसिक व आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करना भी है। योग इन तीनों आयामों पर काम करता है। शरीर जीवन का आधार है जिसकी सहायता से व्यक्ति कैवल्य को प्राप्त करता है। अतः इसको स्वस्थ रखना नितांत आवश्यक है। इस हेतु योग में शारीरिक क्रियाओं को जोड़ा गया हैं किंतु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि योग व्यायाम पद्धति हैं, योग का लक्ष्य इससे कहीं ऊँचा है।

निष्कर्ष

इस प्रकार हम देखते हैं योग एक सरल व सामान्य कला है जिसे किसी भी धर्म, जाति या वर्ण का व्यक्ति चाहे वह गृहस्थ हो या ब्रह्मचारी इसके नियमित अभ्यास से लाभ प्राप्त कर सकते हैं। अतः उपरोक्त सभी भ्रामक धारणाएँ एवं उनके सम्बंध में सही तथ्यों के प्रकाश में हम योग के सम्बंध में प्रचलित भ्रांतियाँ त्याग कर योग के प्रति एक नवीन व सकारात्मक दृष्टिकोण अपना सकते हैं।

भ्रामक धारणाओं का मन पर प्रभाव

योग के सम्बंध में जनसामान्य के बीच जो भ्रामक धारणाएँ फैली हुई हैं उनके कारण समाज तथा व्यक्ति के मन पर उनका प्रभाव परिलक्षित होता है जो आगे जाकर योग तथा योगी के सम्बंध में कुप्रचार का रूप ले लेता है। ऐसी भ्रामक धारणाओं का हमारे मन पर क्या प्रभाव होता है, इन्हें निम्न बिंदुओं के प्रकाश में समझा जा सकता है: ।

  • योग के प्रति उदासीनता।
  • यौगिक क्रियाओं तथा उनके अंगों के प्रति भय की प्रतीति।
  • योग के वास्तविक लक्ष्य के प्रति भ्रमपूर्ण स्थिति का निर्मित होना।
  • योग तथा योगी के प्रति हेय दृष्टि का भाव।
  • योग ग्रंथों के प्रति अरुचि उत्पन्न होना।

भ्रामक धारणाओं के स्त्रोत

  • कल्पना निहित या कही-सुनी बातें

योग के सम्बंध में व्यक्तियों द्वारा केवल कल्पना के आधार पर उसके सम्बंध में एक धारणा बना लेना या कहीं भी किसी के द्वारा सुनी बातों के आधार पर एक ग़लत, भ्रामक विचारधारा का अनुसरण करना या उसके सम्बंध में अनर्गल बातें करना।

  • बाह्य-आडम्बर या वेशभूषा

योगी” के सम्बंध में प्रचलित उसका बाह्य-रूप या वेशभूषा की एक रूपरेखा बनाकर हमेशा उसी दृष्टिकोण से योग या योगी के सम्बंध में सोचना या देखना।
उदाहरण-

  • योगी बढ़ी हुई दाढ़ी व केश दोनों रखते हैं।
  • योगी केवल सफ़ेद या भगवा वस्त्र का धारण करते हैं।
  • परंपराओं की भिन्नता व संकुचित दृष्टिकोण

महर्षि पतंजलि से आधुनिक युग तक विभिन्न विभिन्न परम्परा के द्वारा या महर्षियों द्वारा योग को समझने या समझाने की अलग-अलग प्र क्रियाओं के कारण उत्पन्न भ्रमपूर्ण स्थिति तथा अपनी प्र क्रिया के प्रति अति-विश्वास होना संकुचित दृष्टिकोण को जन्म देता है।

  • विषय की अधूरी समझ

समाज व देश में अधिकांश उन व्यक्तियों द्वारा योग के सम्बंध में निरंतर व्याख्या करना या टिप्पणी देना, जिन्हें योग के सम्बंध में प्रायोगिक या शास्त्रीय कोई ज्ञान नहीं है, विषय की अधूरी समझ उत्पन्न करता है।

  • वैचारिक भिन्नता

विभिन्न मत व सम्प्रदायों या मार्ग की भिन्नता के कारण उनके द्वारा या उनके विद्यार्थियों द्वारा अपने-अपने ज्ञान को सही मानकर प्रचार करना वैचारिक भिन्नता को जन्म देता है।

  • बुद्धि की अपरिपक्वता

अल्प ज्ञान व अविकसित पद्धतियों के अपनाने व उसका निरंतर पालन करने के कारण एक तरह की हठधर्मिता रखना बुद्धि की अपरिपक्वता को जन्म देता है।

  • संकुचित परिभाषाएँ

योग एक सम्पूर्ण शास्त्र है, किंतु हठधर्मिता के चलते या अपने ही मन को सही प्रमाणित करना, ऐसी परिभाषाएँ करना जो केवल उसका वही रूप दिखाएँ जिस अर्थ विशेष को आप महत्व देते हैं, संकुचित परिभाषाओं की श्रेणी में आता है।

  • योग के साध्य-साधन विश्वास का अभाव

अधिकांश व्यक्तियों को यही पता नहीं होता कि योग क्या है ? या उसकी प्राप्ति क्या है ? इस सम्बंध में अधूरे ज्ञान के कारण उनके द्वारा अपने ही मन के अनुसार उसके साध्य-साधन विभिन्न अंगों के बना लेना ही योग के साध्य-साधन विचार के अभाव को जन्म देता है।

  • योग के विभिन्न अंगों के भाव को समझने में कठिनाई

अधिकांश व्यक्तियों को योग सीखने से लेकर उसे सीख जाने के उपरांत भी यह पता नहीं होता कि उसके अंग क्या हैं ? यही नहीं उन अंगों का महत्व क्या है ? या उनका परानुक्रम क्यों है ? इस कारण उनके द्वारा उल्टे-सीधे तरीक़ों से उसकी व्याख्या करना भ्रामक धारणाओं को जन्म देता है।

निराकरण के उपाय

योग के संबंध में प्रचारित भ्रामक धारणाओं के निराकरण के उपाय निम्न हैं –

  • योग के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रचार करना।
  • योगशास्त्रों तथा ग्रंथों को पढ़ने हेतु समाज को प्रेरित करना।
  • योग की सही व उचित जानकारी का प्रचार करना।
  • योग की क्रियाओं व आसनों का उनके लाभों सहित प्रदर्शन करना।
  • सरल एवं सुगम्य भाषा में ग्रंथों का अनुवाद करना तथा समाज में उसका प्रचार-प्रसार करना।
  • योग के साध्य पक्ष को आर्थिक आधार पर न भुनाने की शिक्षा देना।

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