Prayer In Hindi

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प्रार्थना

प्रार्थना का शाब्दिक अर्थ – ईश्वर के प्रति आत्म निवेदन या सच्ची विनय।
पूर्ण श्रद्धा भक्ति और विश्वास के साथ ईश्वर चरणों में स्वयं को समर्पित करना ही प्रार्थना है। सच्ची प्रार्थना वही है जिसमें हम अपनी विराट् सत्ता के प्रवाह में अपने क्षुद्र अहम् का शमन करते हैं। हम अपने आंतरिक प्रकाश को विश्व में बिखेरते हुए प्रकाश में मिला देते हैं तथा अनंत अमर सत्ता की अनुभूति में अपनी तुच्छ व्यक्तिगत सत्ता का लोप कर देते हैं। ऐसा होने पर जहाँ एक ओर हमारा क्षुद्र अहम् नष्ट हो जाता है, वहीं दूसरी ओर हमें हमारे वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है।
प्रार्थना वाचिक भी हो सकती है और मानसिक भी। प्रार्थना परिस्थितिजन्य भी हो सकती है। प्रार्थना के निम्न और श्रेष्ठ अनेक स्वरूप और स्तर हैं। प्रार्थना का निम्नतम स्तर वह है जब व्यक्ति अपने शत्रु के विनाश या उसकी मृत्यु के लिए अथवा किसी के अनिष्ट के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है। श्रेष्ठतम स्तर की प्रार्थना में स्वार्थपूर्ण चेष्टाएँ नहीं होतीं। वह पूर्णतः निष्काम होती हैं। उसमें किसी प्रकार का भोग शामिल नहीं होता।
सांसारिक विषयों में मन का भटकना प्रार्थना की प्रभावोत्पादकता को नष्ट कर देता है क्योंकि प्रार्थना में मन का पूर्ण रूप से स्थिर होना एवं अपने उपास्य में पूर्णतः केंद्रित होना अति आवश्यक है।
सच्ची प्रार्थना संक्षिप्त होनी चाहिए, क्योंकि सुदीर्घ प्रार्थना में भटकने की आशंका बनी रहती है। श्रेष्ठतम प्रार्थना सर्वोच्च स्तर तक ले जाती है, जहाँ प्रार्थना की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि उपासक अनंत में पूर्णतः विलीन हो चुका रहता है।

प्रार्थना के प्रकार

सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से प्रार्थना के तीन प्रकार हैं –

  • सामाजिक दृष्टिकोण से प्रार्थना के प्रकार:
    • व्यक्तिगत प्रार्थना
    • सामूहिक प्रार्थना
    • सार्वभौमिक प्रार्थना
  • आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रार्थना के प्रकार:
    • सकाम प्रार्थना
    • निष्काम प्रार्थना
    • अनिष्टकारी प्रार्थना

सामाजिक दृष्टिकोण से प्रार्थना के प्रकारों की व्याख्या

  • व्यक्तिगत प्रार्थना

व्यक्तिगत प्रार्थना वह प्रार्थना है, जिसमें व्यक्ति स्वयं ही समर्पित होकर प्रार्थना करता है। इस प्रकार की प्रार्थना में ईश्वर के दिव्य गुणों के कीर्तन तथा देव कृपा प्राप्ति की भावना व्यक्त की जाती है। उदाहरण –
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविड़म् त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम देव-देव॥

  • सामूहिक प्रार्थना

ऐसी प्रार्थना जो किसी समूह में या गुरु-शिष्य के मध्य, समूह के कल्याणार्थ की जाती है वह सामूहिक प्रार्थना कहलाती है। इस प्रकार की प्रार्थना का अच्छा उदाहरण वेदों व उपनिषदों में मिलता है।
उदा.- अथर्व वेद में गुरु एवं शिष्यों द्वारा एक साथ निम्नानुसार की गई प्रार्थना इस प्रकार की प्रार्थना का सुंदर उदाहरण है।
ॐ सहनाभवतु, सहनौ भुनक्तु, सहवीर्यम् करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै, ॐ शांति शांति शांतिः॥

  • सार्वभौमिक प्रार्थना

यह प्रार्थना समस्त विश्व के कल्याणार्थ की जाने वाली प्रार्थना है। इसमें प्रार्थनाकर्ता के भीतर स्वयं के लिए कोई आकांक्षा, अपेक्षा नहीं होती और न ही किसी व्यक्ति विशेष के लिए कोई कामना होती है। व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से सम्पूर्ण विश्व के कल्याण हेतु प्रार्थना करता है।
उदा.-
सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभागभवेत् ॥

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रार्थना के तीन प्रकार हैं:-

  • सकाम प्रार्थना

अपने स्वयं के तथा अपने बंधुओं मित्रों के सुख, स्वास्थ्य, धन-लाभ अथवा जय-विजय प्राप्ति हेतु की गई प्रार्थना ‘सकाम’ प्रार्थना है। किसी व्यक्ति के सुधारार्थ सकाम प्रार्थना इस प्रकार की जा सकती है।
सुधरे वह सुशील बन, पालन कर आचार।
कर्म धर्म में रत रहे, सब कुव्यसन निवार॥

  • निष्काम प्रार्थना

स्वयं के चैतन्य भाव की जागृति, चित्त शुद्धि, मन की विमलता तथा पाप से निवृत्ति हेतु तथा निःस्वार्थ भाव से परहित, परसुख, स्वास्थ्य, पदोन्नति आदि हेतु की गई प्रार्थना निष्काम प्रार्थना है। उपर्युक्त उल्लेखित अभीष्ट उद्देश्य यद्यपि एक प्रकार की कामना ही है। परंतु सांसारिक स्वार्थ न होने तथा परमार्थ होने में कर्ता का इस लोक सम्बंधी, सांसारिक सुख, यश आदि का कोई प्रयोजन न हो वह कर्म उसका निष्काम कर्म है। अतः ऐसे परमार्थ एवं आत्मकल्याण हेतु की गई प्रार्थना व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्थान में बहुत सहायक है तथा देश के सुधार हेतु भी की जा सकती है।
उदा.- आत्म कल्याण हेतु निम्नानुसार प्रार्थना की जा सकती है।
जगे चेतना विमलतम, हो सत्य सुप्रकाश।
शांति सर्व आनंद हो, पाप ताप का नाश।।
बुद्धि वृद्धि, विवेक, बल, आत्म बल बढ़ जाए।
सदिच्छा मानस बल बढ़े, धृति धर्म को पाए॥

इसी प्रकार देश सुधार हेतु निष्काम प्रार्थना का एक स्वरूप इस प्रकार हो सकता है।
सदाचार सत्कर्म का, करें पालन सब लोग।
मेल एकता साध के, हरे देश के रोग॥

  • अनिष्टकारी प्रार्थना

ऐसी प्रार्थना जिसमें अपने शत्रु के विनाश अथवा किसी के अनिष्ट के लिए ईश्वर से निवेदन किया जाता है, वह अनिष्टकारी प्रार्थना कहलाती है। ऐसी प्रार्थना काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि भावनाओं से प्रेरित स्वार्थपूर्ण चेष्टाओं से प्रभावित होती है। ऐसी प्रार्थना निम्नस्तरीय प्रार्थना होती है, उसमें किसी का कल्याण नहीं होता बल्कि प्रार्थना कर्ता स्वयं अपने आध्यात्म पतन का कारण बनता है।
किसी को कष्ट, क्लेश देने हेतु प्रार्थना करना, किसी के शरीर को हानि या धन की हानि पहुँचाने हेतु प्रार्थना करना, अन्याय के लिए प्रार्थना करना, किसी निम्नस्तर की शक्ति को सच्चा बनाने के लिए प्रार्थना करना, किसी अपराधी को मुक्त कराने हेतु प्रार्थना करना आदि को निम्नस्तर का मानकर संतों द्वारा वर्जित किया गया है।

दैनिक जीवन में प्रार्थना की उपयोगिता व महत्व

मानव जीवन में प्रार्थना का बड़ा महत्व है। प्रार्थना की विभिन्न परिस्थितियाँ। जहाँ एक ओर संबल प्रदान करती हैं, वहीं दूसरी ओर भय मुक्त भी करती हैं। प्रार्थना जहाँ हमें जीवन जीने हेतु आधार प्रदान करती है वहीं हमारे पूरे व्यक्तित्व को भी प्रभावित करती है।

सम्पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति का साधन

मानवीय सम्पूर्ण स्वास्थ्य के तीन पक्ष हैं। प्रथम पक्ष शारीरिक पक्ष है जो स्थूल है। द्वितीय पक्ष मानसिक है जो सूक्ष्म है तथा तृतीय पक्ष आध्यात्मिक है जो आत्मा से सम्बंधित है। इन तीनों पक्षों में एक गहरा पारंपरिक सम्बंध और तालमेल है। प्रार्थना के अभाव में आध्यात्मिक पक्ष की निरंतर अवहेलना होती जाती है। इसके परिणाम स्वरूप आत्मीय पक्ष दुःखों से भर जाता है और तत्पश्चात् मन अशांत, अस्थिर और क्लेश युक्त हो जाता है। ऐसी स्थिति लंबे समय तक जारी रहने से अनेक प्रकार के मनोरोग जैसे दुश्चिंता, अकारण भय, मानसिक अवसाद उत्पन्न होते हैं। इसके पश्चात् इन मनोरोगों के कारण उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग, पेट की बीमारियाँ जैसे वायुविकार, हिस्टीरिया आदि मनोकायिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
प्रार्थना से आध्यात्मिक पक्ष को बल एवं शक्ति प्राप्त होती है, जिसमें तनाव, द्वन्द्वों तथा विपरीत परिस्थितियों में हम अनुकूलन करना सीख जाते हैं। सतत् प्रार्थना के प्रभाव से रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ने लग जाती है तथा दूसरी ओर रोगों का प्रकोप भी कम होने लगता है, इसके परिणाम स्वरूप बीमारियों को दूर करने में बहुत मदद मिलती है। स्पष्ट है कि सतत् प्रार्थना से स्वरूप के तीनों पक्ष सबल बनते हैं और सम्पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।

आत्म-शोधन का साधन

प्रार्थना का हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है “आत्मोन्नति”। पहले साधक अपने द्वारा किए गए पापों का पश्चाताप करता है और पापाचार को पुनः न करने का संकल्प लेता है। प्रार्थना साधक के जीवन में एक कर्तव्य परायण नियमित प्रहरी की तरह होती है जो चोरों एवं समाज विरोधी तत्वों को घर के पास आने से रोकती है। बार-बार प्रार्थना करने से साधक को बार-बार आत्म निरीक्षण का अवसर मिलता है जिससे वह दो प्रार्थनाओं की मध्यावधि में मन, वचन एवं कर्म से होने वाले स्खलनों को जान जाता है। इस प्रकार ध्यान में बैठ जाने पर प्रार्थना का स्थान पश्चाताप ले लेता है और साधक पुनः अपराध न करने का निश्चय करता है। जिस प्रकार स्नान व शोधक औषधियाँ हमारे शरीर को बाह्य एवं आंतरिक शुद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार प्रार्थना भी आत्म-शोधन का साधन है।

अध्यात्मिक सामर्थ्य की प्राप्ति का साधन

प्रार्थना न केवल शोधन का कार्य करती है अपितु हमें आध्यात्मिक सामर्थ्य भी प्रदान करती है। सतत् प्रार्थना से मन की चंचलता समाप्त होने लगती है और मन स्थिरता को प्राप्त होता है। चित्त की वृत्तियों पर साधक का नियंत्रण हो जाता है। निरंतर नियमित प्रार्थना से मानसिक एकाग्रता का स्तर भी धीरे-धीरे बढ़ने लगता है और फिर क्षुद्र अहम् का विनाश हो जाता है। इस प्रकार साधक को प्रार्थना ऐसे ऊँचे स्तर तक ले जाती है जहाँ साधक को ईश्वर को सर्वव्यापकता की अनुभूति होती है और साधक का अनंत से संपर्क संस्थापन होता है।

कैवल्य प्राप्ति का साधन

सतत् प्रार्थना के प्रभाव से चित्त की वृत्तियों पर नियंत्रण प्राप्त हो जाता है। चित्त और मन में संयम के साथ-साथ प्रार्थना से ऐसा रक्षा कवच प्राप्त होता है जो ध्यानादि के उच्च अभ्यास के समय सांसारिक प्रलोभनों से साधक के समीप पहुँचने पर साधक के मन में आध्यात्मिक सफलता का गर्व जागृत कर सकता है। ऐसी स्थिति में प्रार्थना से मन में उत्पन्न हुए इस अहम् और गर्व आदि को विनष्ट किया जा सकता है।
हमारे सामाजिक परिदृश्य में ऐसे कई महापुरुषों के उदाहरण हैं जिन्होंने प्रार्थना के द्वारा कठिन से कठिन समय में, अत्यधिक दुःखों में रहते हुए भी जीवन में सामंजस्य कर दिखाया। ईसा मसीह द्वारा अपने अंतिम समय में अत्याचारियों के कल्याणार्थ प्रार्थना करके शारीरिक घोर कष्टों से मुक्ति पाई और ईश्वर के सर्वव्यापी होने को सिद्ध किया। महात्मा गाँधी ने प्रार्थना के बल पर ही अहिंसा और सत्य को आधार बनाकर देश को आज़ादी दिलाने में अहम् भूमिका निभाई। कैवल्य प्राप्ति के लिए निर्ग्रन्थ संत होना और आत्मा का चिंतन, मनन या निर्विकल ध्यान आवश्यक है।
आज के वैज्ञानिक युग में प्रार्थना की उपयोगिता पर गंभीरता से विचार करें तो हम पाएँगे कि आज प्रार्थना अनेकानेक बीमारियों को दूर करने में औषधि के रूप में प्रयोग की जा रही है। आज ॐ पर हुए अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो चुका है। कि प्रार्थना (ॐ के उच्चारण के रूप में) से उच्च अथवा निम्न रक्तचाप जैसी बीमारियों को दूर कर व्यक्ति को स्वस्थ अवस्था में लाया जा सकता है।

आधुनिक जीवन में तनाव, द्वंद्व एवं नैराश्य

आधुनिक जीवन में मानसिक व्याधियों की बढ़ती संख्या के मुख्य कारण तनाव द्वंद्व व नैराश्य है। समाज में अपनी स्थिति सुदृढ़ बनाने, परिवार व समाज के आदेशों एवं मूल्य से तादात्म्य बनाने तथा स्वयं अपनी इच्छापूर्ति में विफल होने इत्यादि अवसरों पर तनाव उत्पन्न हो जाता है।

तनाव का अर्थ

मनोविज्ञान में तनाव शब्द का उपयोग कारण तथा प्रभाव के संदर्भ में किया जाता है।

मानसिक तनाव के कारण के रूप में प्रतिबल

तनाव का सम्बंध प्रतिबलक से है अर्थात् वह घटना या कारण जो मानसिक परेशानी उत्पन्न करता है। यह प्रतिबलक शारीरिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक होते हैं। जैसे-थकान, पीड़ा, बीमारी इत्यादि शारीरिक प्रतिबलक हैं। सामाजिक प्रतिबलक के अंतर्गत मानसिक गड़बड़ी के सामाजिक कारकों को लिया जाता है यथा गरीबी, बेरोज़गारी, छुआछूत आदि। मनोवैज्ञानिक प्रतिबलक का अर्थ वे घटनाएँ हैं जो व्यक्ति में मानसिक वैषम्यावस्था उत्पन्न कर देती हैं। जैसे-नौकरी छूट जाना, किसी प्रियजन की मृत्यु, वैवाहिक झगड़े इत्यादि।

मानसिक तनाव के प्रभाव के रूप में प्रतिबल

दूसरे अर्थ में तनाव का सम्बंध मानसिक स्थिति या मनोविज्ञान से है। इस अर्थ में तनाव वास्तव में किसी घटना का प्रभाव या परिणाम होता है, कारण नहीं।
विभिन्न वैज्ञानिकों ने तनाव की परिभाषा अलग-अलग तरीके से की है। मुख्य रूप से रेथस तथा नेविड 1991, रेबर 1995 तथा डेवीसन तथा नील 1996 की परिभाषा को अधिक मान्यता प्राप्त है।

तनाव के प्रकार

तीव्रता के आधार पर –

  • मन्द
  • तीव्र

सत्ताकाल के आधार पर –

  • क्षणिक तनाव
  • चिरकालिक

चेतना के आधार पर –

  • चेतन तनाव
  • अचेतन तनाव

उन्मुखता के आधार पर –

  • कार्य उन्मुखी ।
  • अहम् उन्मुखी

आधुनिक जीवन में तनाव के कारण

आज के प्रतिस्पर्धात्मक सामाजिक परिवेश में विभिन्न कारणों से व्यक्ति तनाव अनुभव करता है। भागदौड़ से अस्त-व्यस्त जीवन दिन-प्रतिदिन की माँगों से सामंजस्य बैठाने के प्रयास में ऊब और थकान अनुभव करने लगता है। ऐसा लगता है जीवन आनंदपूर्ण और सहज नहीं रह गया है। परिवार, पड़ोस और कार्यक्षेत्र से सम्बंधित कठिनाइयों का निवारण उचित समय पर नहीं हो पाता। फलस्वरूप और अधिक तनाव उत्पन्न हो जाता है। जिसके मुख्य कारण निम्नलिखित हैं।

  • दैनिक कठिनाइयाँ
    • घरेलू कठिनाइयाँ
    • स्वास्थ्य से सम्बंधित कठिनाइयाँ
    • समय दबाव की कठिनाइयाँ
    • आंतरिक कठिनाइयाँ
    • पर्यावरणीय कठिनाइयाँ
    • आर्थिक उत्तरदायित्व सम्बंधी कठिनाइयाँ
    • व्यावसायिक कठिनाइयाँ
    • भविष्य सुरक्षा संबंधी कठिनाइयाँ
  • जीवन परिवर्तन

जीवन में अचानक, अवांछित परिवर्तन भी तनाव का मुख्य कारण है।

  • पीड़ा और कष्ट

शारीरिक क्षति अथवा रोग।

  • कुण्ठा और द्वंद्व

अपनी अथवा परिवार की आवश्यकता पूरी न कर पाने पर कुण्ठा का अनुभव होता है जो कि बाद में तनाव में बदल जाता है। द्वन्द्व भी तनाव उत्पन्न करता है।

  • प्राकृतिक तथा प्रौद्योगिकी जनित महासंकट

यह भी आधुनिक जीवन में तनाव के बड़े कारणों में से एक है। तुफ़ान, बाढ़, विस्फोट, महामारी आदि प्राकृतिक संकट के उदाहरण हैं। जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से पडता है। इनसे लोग प्रभावित होते हैं और तनाव का शिकार हो जाते हैं।
प्रौद्योगिक जनित संकट भी गंभीर तनाव उत्पन्न करते हैं जैसे भोपाल गैस त्रासदी, जयपुर में पेट्रोल डिपो में आग लगना, अणु विस्फोट इत्यादि घटनाओं से आस-पास कई कि.मी. तक लोग तनावग्रस्त हो जाते हैं।

द्वंद्व या संघर्ष

द्वंद्व के प्रकार

  • आगमन – आगमन संघर्ष – जब व्यक्ति के सामने दो समान शक्ति वाले धनात्मक लक्ष्य होते हैं तब यह तय नहीं कर पाता कि वह किसे पहले प्राप्त करें और किसे बाद में। जैसे पहले भोजन करें या सोने जाएँ। ऐसी दुविधा का निवारण आसान होता है। व्यक्ति पहले भोजन कर ले फिर सोने चला जाए।
  • परिहार – परिहार संघर्ष – इस प्रकार का संघर्ष दो प्रकार का होता है। जैसे एक ओर शेर हो और दूसरी ओर गहरी खाई! तो व्यक्ति किसे चुने ? अधिकतर व्यक्ति कोई तीसरा विकल्प चुनने का प्रयास करते हैं।
  • आगमन – परिहार संघर्ष – इस प्रकार के मानसिक संघर्ष में व्यक्ति एक ही समय में धनात्मक और ऋणात्मक लक्ष्यों के बीच पड़ जाता है तथा यह तय करना उसके लिए कठिन हो जाता है कि किसका चुनाव करे। उदाहरण आपको ऐसे व्यक्ति ने रात्रिभोज पर आमंत्रित किया है जिसे आप शत्रु समझते हैं। ऐसे में निमंत्रण ठुकराने से असभ्य कहलाने का भय है, निमंत्रण स्वीकार करने से अहम् को ठेस लगती है।

संघर्षों के स्रोत

  • विच्छिन्न परिवार
  • माता-पिता की दोषपूर्ण मनोवृत्ति
  • दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली
  • गलत व्यवसाय नियोजन
  • सामाजिक प्रतिबंध
  • विरोधी सांस्कृतिक मूल्य
  • इड तथा सुपर ईगो का विरोधी स्वरूप

‘नैराश्य’ अथवा ‘कुण्ठा’ शब्द वास्तव में लैटिन शब्द से बना है, जिसका अर्थ है। ‘व्यर्थ होता है।

नैराश्य के कारक

बाह्य कारक

आंतरिक कारक

1

भौतिक कारक

1

शारीरिक दोष

2

सामाजिक कारक

2

मानसिक दोष

3

आर्थिक कारक

3

विरोधी इच्छाएँ या लक्ष्य

4

अत्याधिक अभिलाषा स्तर

5

अहम् की कमजोरी

6

गलत मानसिक वृत्ति

7

निष्कपटता एवं दृढ़ता की कमी

नैराश्य पर प्रति क्रिया

कुण्ठा के परिमाण, कारक व प्रकार आदि के अनुसार व्यक्ति कुण्ठा पर प्रति क्रिया व्यक्त करता है। ये दो प्रकार की होती हैं:

साधारण प्रति क्रिया

  • प्रयास में वृद्धि
  • परिस्थिति से समझौता
  • परिहास
  • विनम्रता
  • लक्ष्य-परिवर्तन

उग्र प्रति क्रिया

  • आंतरिक आक्रात्मकता – आत्महत्या तक कर सकता है।
  • बाह्य आक्रात्मकता – नौकर, पत्नी या बच्चे को डाँटने या पीटने लगना।

नैराश्य और द्वेद दूर करने के उपाय

मानसिक संघर्ष दो प्रकार के होते हैं, जिन्हें चेतन संघर्ष तथा अवचेतन संघर्ष कहते हैं। चेतन संघर्ष का अर्थ वह संघर्ष है जो मन के चेतन स्तर पर होता है। ऐसे संघर्षों की जानकारी व्यक्ति को रहती है। इस संघर्ष के कारण तथा इसके स्वरूप व परिणाम की जानकारी भी व्यक्ति को रहती है। इसके विपरीत अवचेतन संघर्ष का अर्थ वह संघर्ष है जो अवचेतन स्तर पर होता है तथा व्यक्ति को इसकी जानकारी नहीं होती। चेतन संघर्षों का सामना तथा समाधान अपेक्षाकृत आसान होता है। जबकि अवचेतन संघर्ष जटिल कोटि के होते हैं एवं उनका समाधान भी कठिन होता है।

चेतन संघर्षों का समाधान

  • तर्क-वितर्क की अवस्था
  • निर्णय की अवस्था
  • संकल्प की अवस्था
  • प्रकट व्यवहार

अवचेतन संघर्षों का समाधान

मनोरचना वह मानसिक प्र क्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति अवचेतन रूप से मानसिक द्वन्द्वों का समाधान करता है। इन्हें प्रतिरक्षा रचनाएँ भी कहते हैं। इस मानसिक प्र क्रिया के द्वारा व्यक्ति इड (Id) तथा सुपर ईगो (super ego) के विरोधी स्वरूप के कारण उत्पन्न द्वन्द्वों का समाधान मनोरचनाओं के माध्यम से करके ईगो अपने आपको चिन्ता तथा तनाव से बचाने का प्रयास करता है इसलिए इन्हें ईगो प्रतिरक्षा कहा जाता है।

मनोरचनाओं के प्रकार

  • दमन
  • रूपांतरण
  • उदात्तीकरण
  • युक्तियुक्तकरण
  • प्रतिगमन
  • प्रति क्रिया-निर्माण

गौण मनोरचनाएँ

  • विस्थापन
  • प्रक्षेपण
  • आत्मीकरण
  • अंतः क्षेपण
  • क्षतिपूर्ति
  • प्रत्याहार एवं निषेधवृत्ति

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