Yoga and Mental Health In Hindi

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योग और मानसिक स्वास्थ्य

व्यक्तित्व – परिभाषा एवं घटक

भारतीय एवं विश्व दर्शन का अवलोकन करने से एक तथ्य आलोकित होता है कि जहाँ एक ओर बाहरी वातावरण व्यक्ति की जिज्ञासा का सतत् केंद्र रहा, वहीं दूसरी ओर उसने मानव जीवन के गुणों को समझने का भी पर्याप्त प्रयास किया। व्यक्तित्व के सम्बंध में लोगों की अनेक धारणाएँ हैं। इसके वैज्ञानिक अध्ययन, मापन तथा व्याख्या के अनेक प्रयास पूर्व एवं पाश्चात्य देशों में किए गए हैं। इसकी परिभाषा जो सर्वमान्य हो, उसका चयन आज भी बाक़ी है। आरंभिक दौर के कुछ मनोवैज्ञानिक, मानसिक, जैविक, रासायनिक एवं शारीरिक पक्षों पर बल देते थे तो दूसरे बाह्य व्यवहार का निरीक्षण करते थे।
निम्नलिखित विद्वानों ने समय-समय पर व्यक्तित्व को परिभाषित किया है। जिसमें आलपोर्ट की परिभाषा को संतोषजनक माना गया है।

  • मॉर्टन प्रिंस, 1924
  • वॉटसन, 1924
  • गथरी, 1948
  • मरे, 1948
  • गिलफ़ोर्ड, 1956
  • वॉरेन, 1930
  • बोरिंग, 1950
  • परविन, 1971
  • आल्पोर्ट, 1961

प्रो. गॉर्डन डब्ल्यू. आल्पोर्ट ने सन् 1937 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘पर्सनैलिटी: ए सायकोलॉजिकल इंटरप्रिटेशन’ में व्यक्ति को इस प्रकार परिभाषित किया । “व्यक्तित्व व्यक्ति की उन मनोशारीरिक पद्धतियों का वह आंतरिक गत्यात्मक संगठन है जो कि पर्यावरण में उसके अनन्य समायोजन को निर्धारित करता है।”
आल्पोर्ट की यह परिभाषा सभी सैद्धांतिक विचारों को समाहित करती है। अधिकतर मनोवैज्ञानिक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसे संतोषजनक मानते हैं। परिभाषा का तीन बिंदुओं के आधार पर विश्लेषण किया जाता है, जो निम्नलिखित है:

  • मनोदैहिक व्यवस्था
  • गत्यात्मक संगठन
  • अनन्य आंतरिक समायोजन

इस तरह स्पष्ट होता है कि व्यक्तित्व की अवधारणा अत्यंत व्यापक है। इसमें व्यक्ति की सम्पूर्ण विशेषताएँ निहित हैं और उनमें समन्वयन पाया जाता है।

व्यक्तित्व के घटक

व्यक्तित्व के कई घटक होते हैं। जिनसे व्यक्ति का व्यवहार नियंत्रित एवं निर्देशित होता है। मुख्य शीलगुण निम्नलिखित हैं –

  • सामान्य क्रियाशीलता
  • स्नायु-विकृति
  • सांवेगिक अस्थिरता
  • प्रभुत्व/अधीनता
  • विषाद
  • सामाजिकता
  • अहं शक्ति

व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक

व्यक्तित्व व्यक्ति के आंतरिक और बाह्य विशेषताओं का गत्यात्मक संगठन है। व्यक्तित्व के विकास में जैविक, सांस्कृतिक, सामाजिक परिवेश तथा मनोवैज्ञानिक कारक विशेष प्रभाव डालते हैं। जब बालक का जन्म होता है तो उसे माता-पिता से अनेक गुण आनुवंशिक रूप से प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त परिवार, विद्यालय, सामाजिक स्वरूप तथा समूह इत्यादि बालक के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारकों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है।

  • जैविक
  • सांस्कृतिक
  • सामाजिक
  • मनोवैज्ञानिक

जैविक कारक

इन्हें आंतरिक निर्धारक भी कहा जाता है क्योंकि इन पर व्यक्ति का नियंत्रण नहीं होता। इनमें मुख्य कारक अनुवांशिकता अथवा जीव जनित प्र क्रियाएँ हैं। जिसके अंतर्गत अंतःस्त्रावी ग्रंथियाँ, शारीरिक संरचना, शरीर-रसायन तथा स्नायु-मण्डल मुख्य हैं। व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारकों में अनुवांशिकता एवं पर्यावरण दोनों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
आनुवांशिकता: प्रजनन शास्त्र की सहायता से व्यक्तित्व के जैविकीय निर्धारकों में आनुवांशिकता का स्थान ज्ञात करने का प्रयास किया गया है। मण्डल के सिद्धांत के आधार पर प्रजनन के तीन नियम हैं:

  • पृथक्करण का नियम
  • प्रभावशाली और गौण लक्ष्यों का नियम
  • स्वतंत्र इकाई लक्षणों का नियम

यह विदित हुआ है कि आनुवांशिकता का प्रभाव जीन्स के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचता है। जन्म के पश्चात् बालक के व्यक्तित्व निर्धारण में चार जैविकीय कारक विशेष रूप से भूमिका निर्वाह करते हैं।

  • अंतःस्त्रावी ग्रंथियाँ
  • शारीरिक संरचना
  • शरीर रसायन
  • स्नायु मण्डल।

व्यक्तित्व के सांस्कृतिक निर्धारक

प्रत्येक समाज की संस्कृति अलग-अलग होती है। व्यक्ति के खान-पान, आचार-विचार तथा व्यक्तित्व पर संस्कृति का गहन प्रभाव पड़ता है। संस्कृति के अंतर्गत रीति-रिवाज, आदतें, परम्पराएँ, रहन-सहन, वेश-भूषा तथा खान-पान आदि प्रमुख हैं।
व्यक्तित्व पर संस्कृति के प्रभावों के विषय में प्रयोगात्मक तथा मानवशास्त्रीय प्रमाण विभिन्न अध्ययनों द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं।
संस्कृति दो प्रकार की होती है –

  • भौतिक संस्कृति ।
  • अभौतिक संस्कृति

व्यक्तित्व के सामाजिक निर्धारक

बालक के जन्म के बाद उसे जो परिवेश प्राप्त होता है उसका स्पष्ट प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर दिखाई देता है। हरलॉक, 1974 के अनुसार सामाजिक परिस्थितियाँ आयु के अनुसार सीखने का निर्धारण करती हैं। ऐसा करने से व्यक्ति में ‘स्व’ का विकास होता है और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना बढ़ती है। व्यक्तित्व के सामाजिक निर्धारक उपलब्ध मूल सामग्री के पूर्ण परिवर्तन के लिए उत्तरदायी होते हैं। इनमें पारिवारिक तथा स्कूल सम्बंधी कारक अधिक प्रमुख हैं।

व्यक्तित्व के मनोवैज्ञानिक निर्धारक

  • बुद्धि
  • प्रेरणा
  • रुचि
  • अभिवृत्ति
  • चिंता
  • कुण्ठा
  • मूल्य
  • संवेग
  • जीवनशैली

परिवार संबंधी कारक

माता-पिता तथा बालक का सम्बंध। हार्लो 1966, मिशेल 1958, ग्रीन स्टीन 1966 के अध्ययन –

  • अति सतर्क माता-पिता
  • कठोर माता-पिता
  • तिरस्कार करने वाले माता-पिता
  • पक्षपाती माता-पिता
  • माता-पिता के आपसी सम्बंध
  • परिवार का आकार
  • जन्म क्रम तथा व्यक्तित्व – प्रथम, मध्यम क्रम वाले बच्चे, अंतिम बालक

सामाजिक आर्थिक संस्थिति

परिवार का नगरीय अथवा ग्रामीण वातावरण व्यक्तित्व के निर्धारण में महत्वपूर्ण है। परिवार की सामाजिक स्थिति की भांति उसकी आर्थिक स्थिति का प्रभाव भी व्यक्तित्व पर पड़ता है। अत्यंत धनी तथा अत्यंत निर्धन दोनों प्रकार के परिवेश बच्चे के समुचित विकास में बाधक सिद्ध होते हैं।

समूह का प्रभाव

व्यक्ति जिस समूह का सदस्य होता है उसकी संरचना भी उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। समूह प्राथमिक अथवा गौण हो सकता है। इसकी सदस्यता अनिवार्य अथवा ऐच्छिक हो सकती है। इसी तरह नेता तथा सदस्यों का व्यक्तित्व अलग-अलग दिखाई देता है।

विद्यालय का प्रभाव

  • पाठ्यक्रम
  • शिक्षक
  • विद्यालय का सामान्य अनुशासन
  • विद्यालय के साथी
  • विद्यालय जाने की आयु

योग साधना का व्यक्तित्व निर्धारण में स्थान

योग के नियमित अभ्यास से व्यक्ति की बुद्धि-लब्धि बढ़ती है। उसमें व्याप्त कुण्ठा, चिंता, अकेलापन तथा हीनभावनाएँ कम होती हैं। उसकी रुचियाँ परिमार्जित होती हैं। उसके मूल्य सामाजिक रूप से मान्य होते हैं। उसकी जीवन शैली आधुनिक होते हुए भी यौगिक होती है। कुल मिलाकर व्यक्तित्व का सकारात्मक विकास होता है।

व्यक्तित्व विकास पर योग का प्रभाव

व्यक्तित्व को बाहरी व भीतरी प्रभावों के आधार पर ही ठीक तरह से समझा जा सकता है। हर क्षण हमारी जींस, हमारे अनुभव, हमारा परिवेश व हमारी स्वतंत्र इच्छाशक्ति हमारे व्यक्तित्व का निर्धारण करती रहती हैं। प्रत्येक व्यक्ति कुछ बातों में अपनी अलग विशेषता रखता है जैसे-भावनाएँ, आचरण, सामर्थ्य, आदर्शों की कल्पनाएँ इत्यादि। व्यक्ति जो भी कुछ सोचता है उस प्रत्येक क्रिया व विचार में उसके व्यक्तित्व का आविष्कार होता है।
आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्तित्व सम्बंधी परिप्रेक्ष्य इन पाँच मुख्य सिद्धांतों के अंतर्गत आते हैं:

  • मनोविश्लेषणकारी परिप्रेक्ष्य जो व्यक्तित्व को व्यवहार के गत्यात्मक रूप में दर्शाता है।
  • शील गुण परिप्रेक्ष्य जो व्यक्तित्व को व्यवहार के द्वारा परिभाषित करता है।
  • मानवतावादी परिप्रेक्ष्य जो मानव के विकास की संभावना पर ध्यान देता है।
  • सामाजिक संज्ञानात्मक परिप्रेक्ष्य जिस तरह से समाज व परिवेश के द्वारा हमारा व्यक्तित्व प्रभावित होता है उस पर ज़ोर डालता है।
  • विकासवादी परिप्रेक्ष्य जिसके अंतर्गत जीव का व्यवहार उसके विकास के अनुसार होता है।

आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्तित्व के निम्न घटक हैं जिनको योग द्वारा संतुलित व विकसित किए जाने से व्यक्तित्व विकास होता है।

  • बुद्धि – आसन व प्राणायाम के अभ्यास के साथ-साथ त्राटक व ध्यान द्वारा बुद्धि-लब्धि बढ़ती है।
  • प्रेरणा – साधक सदा ही सकारात्मक भाव व ऊर्जा से ओत-प्रोत होता है। जिसके कारण कई अवरोधों पर विजय पाते हुए वह हमेशा ही अभिप्रेरित व जोश से भरा हुआ अनुभव करता है।
  • रुचि – रुचियों के आधार पर ही साधक अंतर्मुखी व बहिर्मुखी होता है। योग व ध्यान के द्वारा मन सांसारिक व आध्यात्मिक दोनों उपलब्धियाँ प्राप्त करता है। जब वह बहिर्मुखी होता है तो सांसारिक व अंतर्मुखी होता है तब आध्यात्मिक उपलब्धियाँ प्राप्त करता है। जगत में श्रेष्ठतम जीवन निर्वाह के लिए दोनों ही दिशाएँ आवश्यक हैं।
  • अभिवृत्ति – योग सेवा, प्रेम, त्याग इत्यादि आत्मिक गुणों के विकास को सिखाता है। इसलिए व्यक्ति जीवन में सदा सकारात्मक अभिवृत्ति रखता है।
  • चिंताकुण्ठा अकेलापन तथा हीनभावना को योग साधना कम करती है। इसके अभ्यास द्वारा अकेलापन व असहायपन के स्थान पर हमारी एकता व तादात्म्य समस्त अस्तित्व के साथ हो जाने से हम अपने आप में पूर्ण अनुभव करते हैं।
  • मूल्य – छह प्रकार के मूल्य बताए गए हैं।
    • ज्ञान प्रधान मूल्य– जिससे व्यक्ति सत्य व ज्ञान की खोज में लगता है। जैसे दार्शनिक व वैज्ञानिक।
    • सौंदर्य प्रधान मूल्य – जिससे व्यक्ति जीवन के सौंदर्य में रुचि लेता है। कला व सौंदर्य उसका लक्ष्य होते हैं। जैसे चित्रकार, कवि, गायक, नर्तक इत्यादि।
    • अर्थ प्रधान मूल्य – जीवन को आर्थिक व उपयोगितावादी दृष्टिकोण से देखते हैं। जैसे उद्योगपति, व्यापारी
    • राजनीति प्रधान मूल्यये व्यक्ति राजनीति में अधिक रुचि रखने वाले होते हैं जैसे राजनीतिज्ञ,नेता।
    • धर्म प्रधान मूल्य – धार्मिक कृत्यों में रुचि रखने वाले धर्म गुरु व साधु-संत इत्यादि इस श्रेणी में आते हैं।
    • समाज प्रधान मूल्य – समाज की विभिन्न गतिविधियों व उसके सुधार में लगे रहने वाले जैसे समाज सुधारक, समाज सेवी कार्यकर्ता इस श्रेणी में आते हैं।

स्वयं योग में यम व नियम के अंतर्गत मूल्य भी बताए गए हैं जिनके पालन से व्यक्ति व समाज दोनों का विकास होता है। जैसे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान। यम-नियम की साधना उस परिवेश का निर्माण करती है जिसमें उपरोक्त शील गुणों का पालन आसान हो जाए।

  • संवेग – योग के द्वारा संवेगों पर नियंत्रण प्राप्त होता है अन्यथा व्यक्ति संवेगों के प्रभाव में आकर अनुपयुक्त व अवांछित कार्य कर लेता है और बाद में पछताता है।
  • जीवन शैली – उसकी जीवन शैली आधुनिक होते हुए भी यौगिक होती है। वह इन्द्रिय सुख की तुलना में आत्मिक सुखों को महत्व देता है। भौतिकता की दौड़ के बजाय उच्चतर लक्ष्यों की पूर्ति जैसे आत्मानुभूति में लगा रहता है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य के अनुसार मानवीय व्यक्तित्व का मूल तत्व आत्मा है। इस आत्मा का अनुभव करना भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य है। आत्म अनुभव हो जाने से व्यक्ति के आचार व व्यवहार में परिवर्तन आता है। मानवीय व्यक्तित्व तीन गुणों व पंच कोषों का बना है। उनके संतुलन व विकास से व्यक्तित्व विकास होता है। आहार-विहार व चिंतन-मनन के नियमन से सात्विक, राजसिक व तामसिक इन तीनों गुणों में संतुलन होता है। पाँच कोषों के अंतर्गत निम्नलिखित कोष आते हैं –

  • अन्नमय कोष
  • प्राणमय कोष
  • मनोमय कोष
  • विज्ञानमय कोष
  • आनंदमय कोष

योग शिक्षा व साधना के द्वारा इनके विकास से व्यक्तित्व विकास होता है।
षट्कर्म-शुद्धि क्रियाएँ – नेति, धौति, वस्ति, नौलि, त्राटक व कपाल-भाति व आसनों के द्वारा अन्नमय कोष अर्थात् स्थूल शरीर की शुद्धि व विकास होता है। प्राणायाम द्वारा प्राणमय कोष का विकास होता है। जीवन शक्ति व रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास प्राण की मात्रा शरीर में अधिक होने से होती है। प्रत्याहार व धारणा द्वारा मनोमय कोष का, ध्यान द्वारा विज्ञानमय कोष का तथा समाधि द्वारा आनंदमय कोष का विकास होता है।

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